Friday 20 January 2012

UNTITLED

आज.........

रग़ों का ख़ून ठण्डा है
सांसें कम गर्म सी
जिस्म बेदम ढो रहा हूं
रूह जैसे जम गयी।

जोश बिदाई ले रहा
जुनूं बाकी न रहा
हारने का आदी हूं
कहने को कुछ न रहा।

ज़िन्दगी है घिसट रही
मौत मुझपर हंस रही
जीने की हर आरज़ू भी
बद्दुआएं दे रही।

दूसरों को क्या कहे
ख़ुद में ग़ैरत न रही
ताकते हैं ज़िल्लतों को
तोहमते जो दे रही।

ज़ुल्मतों की इंतहा है
चेहरा अब खिलता नहीं
मायूसी से दोस्ती है
रौनकों को अलविदा है।

श़ख़्सियत मुरझा चुकी है
हिम्मत बंजर हो चुकी
उम्मीदों की दख़लअंदाज़ी
ज़मींदोज़ हो चुकी।

Friday 17 December 2010

इमोशनल रियलिटी का अत्याचार..


पिछले कुछ सालों से हमारा बुद्धु-बक्सा अच्छा-ख़ासा चालू हुआ है। डेली सोप के युग से होते हुए ये ‘चालू-बक्सा’ कई प्रयोग करता रहा है। जिनमें रियलिटी शो ने ज़बरदस्त प्रशंसा बटोरी है। चन्द चैनलों को छोड़कर बाकि सभी मनोरंजन चैनल रियलिटी के रंग में रंगे हुए हैं। यहां तक कि न्यूज़ चैनलों पर भी रियलिटी शो की तूती बोलती है। ज़्यादातर न्यूज़ चैनल इनके एपिसोड बार-बार दिखाकर अपना समय काटते हैं। यही नहीं,हर दिन कोई नया रियलिटी शो जन्म लेता है। कहीं कोई अपने अंदाज़ में इंसाफ़ करता है तो कोई टीवी पर अपना स्वंयवर करता है। रिश्तों को सुलझाने के लिए शो बन रहे हैं। अगर आपको अपने पति या प्रेमी पर शक है तो टीवी पर उनका सच जानिए। यही नहीं अगर आप अपने मां-बाप या बच्चे से परेशान हैं तो कुछ दिन के लिए नऐ मां-बाप या बच्चे ले लीजिए। आपकी फैमिली क्या ज़िन्दगी बदल जाएगी। अंताक्षरी,गायन और नृत्य से शुरु होते हुए अब रियलिटी का कैमरा ज़ाती ज़िन्दगियों में प्रवेश करता जा रहा है। तेज़ी के साथ ड्रॉइंग रूम से होते हुए अब बेडरूम में भी घुसने लगा है।

 
यहां देखने लायक बात यह है कि रियलिटी के कवर में किस तरह की चीज़े हमें परोसी जा रही हैं। ये तो हम सभी जानते हैं कि आजकल रियलिटी शो सीधे-सीधे युवाओं को टारगेट कर रहे हैं। एम. टीवी से लेकर बिंदास तक सभी चैनल युवाओं का आकर्षण-केंद्र बनने की फ़िराक में हैं। इस दौड़ में एक नई होड़ शुरू हुई है। वो है गाली-गुफ़्तार, मारपीट, अश्लीलता और गंद को सजाकर पेश करने की प्रतियोगिता। बिग-बॉस,इमोशनल अत्याचार,एमटीवी रोडी और स्प्लिटविला जैसे शो इस कतार में बड़े ही गर्व के साथ सबसे अव्वल प्रतीत होते हैं। इन्होंने भारतीय टेलीविज़न में तहज़ीब और तमीज़ के बने बनाए ढांचे को बिना आवश्यकता गिराने का काम किया है। इन शो में किसी काबिल उम्मीदवार की तलाश नहीं होती जो पढ़ाई में अच्छा हो या बहुत प्रतिभाशाली हो या मेहनती और लायक हो। बल्कि उजड, बेशर्म, बिगड़ैल और अभद्र शख़्स इनकी खोज हैं। जो बिना मां-बहन किए बात न करें। बिना वजह लड़ सकें। कैमरे की परवाह किए बिना अफ़रा-तफ़री और बदमिज़ाजी फैलाने में माहिर हों। इस सबके बदले में उन्हें मुंह-मांगी शोहरत मिलनी तय है। क्योंकि लोग इस तरह के लोगों को टीवी में देखकर चकित ज़रूर होंगे। इन कार्यक्रमों की बुलंदी का सीधा सा फण्डा है। अलग-अलग तरह के लोगों में यदि ऐसे एक दो मेटीरियल भी डाल दिए जाएं तो शो की टीआरपी छप्पर फाड़ निकलती है।

 
अब अगर आप इसे ग़लत मानते हैं तो जान लीजिए कि इस सब की वजह आप ही हैं। दरअस्ल इनमें से कई लोगों का मानना है कि ये वो ही दिखा रहे हैं जो लोग देखना चाहते हैं। आप ही बताईए कि क्या वाकई आप ये सब देखने के शौकीन हैं ? चलिए हम मान लेते हैं कि कुछ लोग ऐसे हैं जो ये सब देखना चाहते हैं, तो क्या हर वो चीज़ दिखाना संभव है जो लोग देखना चाहते हैं ? शायद कल कुछ लोग रीयल ख़ून-ख़राबा औऱ सेक्स भी बिना किसी रुकावट के देखना चाहेंगे तो क्या केवल मांग के आधार पर ये सब दिखाना जायज़ बन जाता है। क्या हर वो चीज़ करना सही है जो लोग चाहते हैं ? इस हिसाब से तो सती प्रथा भी सही थी और ऑनर किलिंग भी सही है, सड़क पर शराब पीना भी कोई बुरी बात नहीं है,क्योंकि कुछ लोग ये सब भी चाहते हैं। क्या इन प्रोग्रामों के अन्य पहलुओं पर ग़ौर करने की आवश्यकता नहीं है ? क्यों हम ये भूलते जा रहे हैं कि इस चालू-बक्से का हमारी ज़िन्दगी में कुछ रोल भी है ? इसकी कुछ ज़िम्मेदारियां भी हैं ?  
सामाजिक समस्याओं पर काम करने से परहेज़ करने वालों का कहना है कि अब लोग साहित्य और समस्याओं को देखना पसन्द नहीं करते। फिर ‘बालिका वधु’ जैसा सामाजिक सरोकार रखने वाला सीरियल लगातार अव्वल कैसे रहता है। इसकी अच्छी टीआरपी ये संदेश नहीं देती कि लोग सकारात्मक और सुधारात्मक चीज़े देखना अब भी पसन्द करते हैं। बशर्ते आपमें इतनी प्रतिभा हो कि आप उसे सही ढंग से पेश कर सकें। कौन बनेगा करोड़पति जैसा शो बिना किसी अश्लीलता या गंदगी के अपने आप में इतिहास है..कैसे ? क्यों ऐसी नौबत क्यों आ गयी है कि एक मध्यवर्गीय परिवार का व्यक्ति टीवी देखते समय रिमोट हाथ में पकड़कर रखता है ताकि बीच में अचानक आ जाने वाली गाली-गलौज या अश्लीलता से परिवार वालों के सामने शर्मिंदा होने से बचा जा सके।

 सेंसरबोर्ड तो कुम्भकर्ण की नींद ले रहा है। विभिन्न पार्टियों और सम्बन्धित संस्थाओं के एजेण्डा में ये मुद्दे क्यों नहीं समाते ? मुम्बई को बॉम्बे कह देने मात्र पर जमकर हंगामा बरपाया जाता है पर हर दिन इतनी अराजकता दिखाने के बावजूद कोई चूं भी नहीं करता। हमारे चहेते एक्टर भी चुप्पी रखते हैं। शायद इन्डस्ट्री-वाद राष्ट्रवाद से ऊपर है।
आप और हम तो बिना सोचे-समझे इन्हें देखे जा रहे हैं। धड़ाधड़ एसएमएस कर रहे हैं। हमें क्यों नहीं दिखाई देता कि टीआरपी की इस जंग में आम दर्शक ही घायल हो रहा है। किस तरह इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले और देखने वालें दोनो ओर के लोगों की भावनाओं से खेला जाता है।
किस तरह हिंसा और सिर्फ़ हिंसा हमारे छोटे पर्दे पर छा रही है ? एक छोटे से एड से लेकर नाटकों और बच्चों के कार्टून तक नकारात्मक शैली अपनाते जा रहे हैं। बिना कुछ जाने-बूझे बच्चे ये सब देखे जा रहे हैं और जो दिख रहा है उसे ही सही माने जा रहे हैं। एक छोटा बच्चा अपने साथ के बच्चे को चाकू से गोद डालता है, क्या ये टीवी पर दिखाई जाने वाली हिंसा का असर मानना ग़लत है ? रियलिटी शो पर बेइज़्ज़त होकर एक व्यक्ति ख़ुदकुशी कर लेता है। ऐसे ही न जाने कितने वाकयो से अख़बार भरे पड़े हैं। क्या वाकई अब हम नहीं चाहते कि हम और हमारे बच्चे कुछ अच्छा और देखने लायक कुछ देखें। ताकि कुछ बनें न बनें कम से कम एक अच्छा इन्सान बन सकें। इसका जवाब आपको ही देना है अगली बार टीवी खोलते समय सही चीज़ देखने का चुनाव करके।

Thursday 4 November 2010

ट्यूबलाईट नहीं जलती..

ट्यूबलाईट नहीं जलती अब
न लाल होकर, न काली होकर
न फड़फड़ाकर, न लड़खड़ाकर
एक बार में क्या
दस बार में नहीं
प्यार करो चाहे फटकार भी सही
कोई मरता हो जल्दी मरे पर
जूं भी रेंगती नहीं
ट्यूबलाईट अब जलती नहीं

पुराने कमरे की टूटी-फूटी दीवार पर
अन्धेरे और दुर्गन्ध में
रोशनी की एक बूंद भी नहीं
चीख़-पुकार, लहू,
हैवानियत की हुंकार पर भी
ये तो फड़कती नहीं
ट्यूबलाईट अब जलती नहीं

आस्था की अस्थियों में छेद लिए
नाली की गंदगी सा प्रण लिए
मारपीट, गाली-गलौज,
धक्का-मुक्की दिखती नहीं
ट्यूबलाईट अब जलती नहीं

सिली हुई सांसे उधड़ने लगी
सिसकियों की गर्माहट
कब की ठण्डी पड़ गयी
गिड़गिड़ाहट, तड़पन,
घुटन अब मिटती नहीं
ट्यूबलाईट अब जलती नहीं ।।

पर ये एक बार जली थी
ग़ुस्से के ग़ुबार पर
असहमति की पुकार पर
मन में बसे आग़ाज़ के लिए
कुचली गई आवाज़ के लिए
फिर जमकर..
इसे ज़लालत मिली
समझदारों से लानत मिली
इसकी रग-रग उधेड़
हर पुर्ज़े की तफ़्तीश हुई
तब इसे अपनी औक़ात पता चली
इसका मज़हब और ज़ात पता चली

बस..तभी से बेजान पड़ी है
जलती नहीं है अब
पता नहीं क्यों..

Saturday 30 October 2010

नहीं तो सूख जाएगी बारिश...


सैय्यद शहाब अली             
चिलचिलाती धूप, पसीना और अब तो रातें भी गर्म। कहीं लैला चक्रवात का कहर तो कहीं बेमौसम बूंदाबांदी। मौसम की मार से मरने वालो की तादाद में ज़बरदस्त इज़ाफा। पंखे थक गऐ, कूलर अब कूल नहीं हैं और 'ए.सी. की हो गई तैसी।' आज इस ज़मीन पर सबसे बङी चिंता है- बिगङता पर्यावरण। जो कि अब चिंता से चिता बनने के काफी करीब भी है। थोड़े समय पहले हुआ कोपेनहेगन सम्मेलन भी विफल रहा। कारण- विकसित और विकासशील देशों के बीच सहमति न हो पाना। विकसित देश कार्बन गैसों के उत्सर्जन में कमी पर किसी भी कानूनी बाध्यता को स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि वे इसका पालन नहीं कर पाऐंगे और विकासशील देशों की सर्वोच्च प्राथमिकता सामाजिक-आर्थिक स्तर पर  विकास और गरीबी उन्मूलन है। भारत और चीन जैसे देश इसलिए भी इसके खिलाफ़ हैं क्योंकि विकसित देश सब उन्हीं के मत्थे मंडने की फिराक में रहते हैं। कुल मिलाकर आपसी गुटबाज़ी में बंटी हमारी सभ्यता ने अपने अपने हितों की पहरेदारी करने व अनर्गल बहस करने में ज्य़ादा रूचि दिखाई। हालांकि भारत, अमेरिका और ब्राज़ील समेत कुछ देशों ने बिना किसी कानूनी बाध्यता के अपने तौर पर कार्बन गैसों के बढ़ोतरी में कटौती करने के मसौदे को हरी झंडी दी है। किन्तु कुल मिलाकर यदि देखा जाऐ तो रियो से लेकर कोपेनहेगन तक के सफर में धरती को कोई ज्य़ादा चैन की सांस नहीं मिली है। तब से लेकर अब तक बात घिसट-घिसटकर ही आगे बढ़ी है। 


हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण समिति ने चौंकाने वाली रिपोर्ट दी है कि अगर आज की गति से ही जंगल कटते रहे, बर्फ पिघलती रही तो शायद पचास वर्षों में दुनिया के कई निचले हिस्से डूब जाऐंगे। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित रहे तो भी अगली सदी तक समुद्र का स्तर एक मीटर तक बढ़ेगा जिस कारण मालदीव, सैशेल्स और हवाई जैसे द्वीप राज्य डूब जाएंगे। इन स्थानों में 10 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। ऐसे ही न जाने कितने डरावने आंकङे जानने के बावजूद हमारे प्रयास अत्यंत मंद हैं। एक शोध के मुताबिक वैज्ञानिको ने ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ के लिए कार्बनडाईऑक्साइड को जितना ज़िम्मेदार माना है, वह उससे 50 प्रतिशत अधिक घातक है। यदि एक शोध हमारे ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ रोकने के प्रयासों के आंकने के लिऐ हो तो यकीनन अब तक उठाऐ गये कदम 50 प्रतिशत से भी ज्य़ादा कम साबित होंगे या यूं कहें कि ढीली मुट्ठी में नमक के जैसे।

इस सब के बावजूद ख़ासतौर से विकसित देशों का रवैया तो यही बताता है कि वे पिछड़े देशों पर किसी विपदा के आने के इन्तज़ार में ही बैठे हैं। किन्तु इल्ज़ाम सिर्फ विकसित देशों पर ही क्यों.. क्योंकि आपदा जब आऐगी तो वो विकसित और विकासशील का भेद नहीं करेगी। उसके कटघरे में तो सम्पूर्ण मानव जाति खड़ी होगी। इसलिए उपाय भी मनुष्यों को ही करना है न कि दो खेमों में बंटे देशों को। जिस प्रकार ग़ुलाम प्रथा या भारत में सति प्रथा से निबटने के लिए किसी प्रतिशत को आधार या लक्ष्य नहीं रखा था तो पर्यावरण के इस गंभीर मुद्दे को क्यों आंकड़ो के खेल में उलझाकर एक तरफ किया जा रहा है.. आखिर कब तक बहाने बनाकर इससे आंखें मूंद सकेंगे हम.. जिस प्रकार घर में संकट गहराने पर सभी परिवारजन लोभ व बहाने छोड़ एकजुट होते हैं उसी तरह सभी देशों को मिलकर पूरी ‘ईमानदारी और जोशोखरोश’ से अपनी भूमिका निभानी होगी। यह बात भी सही है कि सभी देशो की अपने नागरिकों के प्रति ज़िम्मेदारी और जवाबदेही है किंतु यह कार्य भी उन्हीं नागरिकों के जीवन से जुड़ा है इसलिए इस सबको ढाल के रूप में इस्तेमाल करना ज्य़ादा समय तक नहीं चल पाएगा।
यहीं से बात आती है कि सरकार अपनी ओर से कार्बन ट्रेडिंग, वनीकरण, सौर ऊर्जा को बढ़ावा और इको-फ्रैन्डली यातायात साधनों को बढ़ावे जैसे उपाय कर रही है, भले ही उन्हें और शिद्दत से किए जाने की ज़रूरत है। पर जिन नागरिकों की सुरक्षा की यह लड़ाई है वे खुद इसके प्रति कितने संवेदनशील हैं...
पिछले एक दशक में पर्यावरण सम्बन्धी जागरुकता काफी बढी है जिसमें मीडिया का योगदान प्रशंसनीय है। किन्तु अब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अक्सर यही सोचते हैं कि ‘मैं भला क्या कर सकता हूं ’? या ‘मेरे अकेले के करने से थोड़े ही ग्लोबल वॉर्मिंग खत्म हो जायेगी?’ यहां बात काबिल-ऐ-ग़ौर ये है कि जब एक आम आदमी किसी वस्तु या सेवा का उपभोग करता है तो वह उस वस्ते या सेवा के उत्पादन को अपनी सहमति प्रस्तुत करता है। उसके उत्पादन को प्रोत्साहित करता है और एक तरह से अपना ‘मत’ देता है। इस प्रकार यदि हम उन वस्तुओं व सेवाओं का तिरस्कार करे जो पर्यावरण को हानि पहुंचाती हैं तो एक आम आदमी होने के नाते हमारा इतना प्रयास भी सराहनीय होगा।
इसके अलावा ऐसी की जगह कूलर का इस्तेमाल, कार-पूलिंग करना, पेपर बैग का उपयोग और बेवजह पैट्रोल फूंकना छोड़कर हम अपना भला कर सकते हैं और ये हम रोज़ की दिनचर्या में बखूबी कर सकते हैं। नहीं तो जल्द ही कुदरत के गुस्से में खाक होने का समय आ सकता है। न जाने कब यह धरती करवट बदल ले। इस पर ज़रा नहीं ख़ूब सोचिये।


                                                 

बेआवाज़ तालियों की गूँज...

सैय्यद शहाब अली


बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम
ख्वाब अब आते नहीं, न ही आते तुम

प्यार की तबियत खराब कर गए
जफा की सुई दिल के ज़ालिम पार कर गए
ख्वाहिशे ग़मगीन सी रहती हैं यूँ गुमसुम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम

नाहक वफ़ा के बदले ही शोक मिल गया
राह-ऐ-वफ़ा में चलते-चलते रोक क्यों गया ?
तेरे प्यार की सहलाहट को तरस रहे हैं हम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम

काश तुम फितरती न यूँ सनम होते
खानाबदोश जिंदगी से दरगुज़र होते
पर इकबाले जुर्म कर भी लो तो मिट चुके हैं हम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम

हुस्न का अंजाम न देखो तो अच्छा है
कभी-कभी ये गम  प्यार से भी अच्छा है
पर चख-चखकर ये मज़ा थक गए हैं हम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम !!