Thursday 23 September 2010

पाकिस्तान की मुहब्बत है कश्मीर ???

सैय्यद शहाब अली
20-09-2010

कट्टरपंथी सोच रखने वाले लोग चाहे किसी भी मज़हब या समुदाय के हों, उनकी सोच की दौड़ एक ही जगह आकर ख़त्म होती है। किसी भी समस्या का हल वे युद्ध ही बताते हैं। खूनी संघर्ष में होने वाली जान-माल की हानि से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। न ही वे इस बारे में सोचते हैं कि युद्ध किसी भी देश को कितने वर्ष पीछे धकेल देता है। उसके विकास की रफ़्तार को कई सालों का ब्रेक लगा देता है। उनका काम केवल बक देना होता है। चाहे फिर कश्मीर जैसा गम्भीर मुद्दा ही क्यों न हो। कश्मीर की समस्या को दो दशक बीत गए हैं और समाधान होता नज़र नहीं आता है। उसके ऊपर कट्टरपंथी अमन-पसन्द लोगो को भी उकसाने से बाज़ नहीं आते। कश्मीर का ‘क’ भी न समझने वाले भी सीधे ख़ून-ख़राबे की बातों पर उतर आते हैं। ब्लॉग पटे पड़े हैं ऐसे संकीर्णवादी सोच रखने वालों से और हर गली कूचे में ऐसे कुएं के मेंढक मिल ही जाते हैं। मुख्यधारा की मीडिया की लाख कोशिशों के बावजूद बैर की भाषा पढ़ाने वाले एक ऐसी खाई का निर्माण करने में जुटे हैं जिसमें दोनों छोर के लोग गिरेंगे।
आजकल फिर से घाटी सुलग रही है। प्रदर्शन की आग में लोग झुलस रहे हैं। पिछले हफ्ते तक भी करीब 25 लोग कश्मीर में अभी के दंगों में मारे जा चुके हैं। घाटी के पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी नेता ज़हर उगल-उगलकर नौजवानों के दिमाग़ो पर कब्ज़ा जमा अपनी मुरादे पूरी करने में बुरी तरह जुटे हैं। वहीं हमारे सियासतदान बैठकों में जाकर बैठने के अलावा कुछ करते नहीं दिख रहे हैं। चाहे फिर वो सर्वदलीय बैठक ही क्यों न हो...सभी दलों को बोलने का मौका कितना मिलता है उन्ही से पूछें। इस सब के बीच हमेशा की तरह घुन बनी पिस रही है मासूम आवाम। वो कश्मीरी जो बड़े-बड़े धन्ना सेठों के फार्मों में मेहनत मज़दूरी कर हड्डियां घिस मरते रहे थे, आए दिन या तो बम विस्फोट में मर रहें हैं या फिर पुलिस फ़ायरिंग में। उनकी ज़िन्दगियों में सकारात्मक कुछ भी नहीं है। 1990 से लेकर अब तक आम कश्मीरी लगातार हिंसा का शिकार हो रहा है। इन सालों में उनकी ज़िन्दगी ख़ुशहाल होना तो दूर बदतर होती रही है। आए दिन दंगे और फिर कर्फ्यू रोज़गार को खा रहें हैं।

हम अक्सर कहते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। लेकिन जिस कश्मीर को हम नक्शे में देखते हैं उसका आधा भाग चीन और पाकिस्तान कब्ज़ा चुके हैं और घुसपैठ बढ़ ही रही है। कश्मीर के लिए पाकिस्तान का पागलपन किसी से छुपा नहीं है। वो तो उस आशिक़ की तरह व्यवहार करता रहा है जो अपनी मुहब्बत को पाने की ज़िद में इतना पागल है कि उसे उसी की कोई परवाह नहीं है जिसे वो पाना चाहता है। उसे वरग़लाने से लेकर उसके चेहरे पर तेज़ाब के छींटे तक देने में उसे गुरेज़ नहीं है। अगर ऐसा न होता तो वो उस जगह को कभी आतंक-ग्रसित नहीं बनाता। वहीं भारत उस श्याने आशिक़ की तरह बर्ताव करता रहा है जो इस बारे में बात करने से पीछा छुड़ाता नज़र आता है। किन्तु ये टालमटोल ज़्यादा समय तक नहीं चल पाएगी। आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर एक्ट (AFSPA) से भी कब तक हालात काबू करने की एक्टिंग हम अपने ही आप से कर पाएंगे ? इसी तरह सेना की ज़्यादतियों के किस्से सुनने को मिलेंगे और सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेता इन्ही बातों का फायदा उठाकर भोले भाले लोगो को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते रहेंगे। कर्फ्यू लगते रहेंगे, दंगे होते रहेंगे और कश्मीर के दामन पर ख़ून के छींटे लगते रहेंगे। क्योंकि कश्मीर की समस्या ऐसी समस्या नहीं है जिसे गोलाबारी और सिर्फ सख़्त कानूनों से सुलझाया जा सके। असल में ये समस्या भारत द्बारा कश्मीरियों का दिल जीतने की है। उन्हे ये अहसास कराने की है कि इस मुल्क से बेहतर उनके बच्चों का भविष्य कहीं और संभव नहीं है। यह सत्य भी है और कश्मीरी इसका अहसास करने भी लगें हैं। हाल ही के चुनावो में लोगो की हिस्सेदारी और प्रधानमंत्री की सफ़ल यात्रा नें इस सम्बंध में एक आशा की किरण भी दिखाई थी। वहीं पाकिस्तान के हालात सबके सामने मौजूद ही हैं। इस्मत चुग़ताई जी ने एक बार कहा था कि पाकिस्तान ने बस लोटे बनाए हैं। यही उसकी तरक्की है। अब अगर ये कहा जाए कि वहां लोटे की जगह आतंकवादियों नें ले ली है तो ग़लत नहीं होगा। ऐसे मुल्क में किसी का क्या भविष्य होगा ? इसके अलावा कश्मीर की आवाम को भी ये समझना होगा कि इस तरह पत्थरबाज़ी और प्रदर्शन से कुछ हासिल होना मुमकिन नहीं है। क्योंकि बलिदान और बलि चढ़ने में फर्क होता है। एक बार एक आम कश्मीरी इस बात को समझ जाएगा तो अपने आप को आवाम का रहनुमां करार देने वालो के मुंह पर उन्ही का जूता होगा।
यूं तो कश्मीर की संप्रभुता से सम्बंधित समाधान पर अब तक ग्यारह फॉर्मूले दिये जा चुके हैं। जिनमें कश्मीर को अर्द्धस्वतंत्र बनाने, दूसरे देशों के आइडिये सहित, ‘इस हाथ ले और उस हाथ दे’ की चिनाब योजना भी है जिसमें गांवो, कस्बो को बांटने का सुझाव है। इस सुझाव के अनुसार चिनाब नदी ही LOC होगी। इसमें कश्मीर को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में छोड़ने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि एक आम भारतीय भी यह बात समझता है कि स्वतंत्र होने के पीछे कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं की क्या सोच है। इसके अलावा फॉर्मूला चाहे जो हो उस पर अमल करने के लिए दोनों देशो की ओर से गहरा चिंतन-मनन अनिवार्य है। जिसके लिए हर पक्ष को अपनी ज़िद के साथ-साथ अहम् को भी त्यागकर खुले दिमाग़ से आगे आना होगा। ताकि जिन लोगों के लिए ये सब किया जा रहा है उनकी आवाज़ न दब जाए। क्योंकि जगह की कीमत लोगों से होती है, उनके बिना वो कुछ भी नहीं। तभी हम फिर से अपने कश्मीर के लिए बिना शक-शुबह के कह सकेंगे कि ‘गर फिरदौस-ए-ज़मीं अस्ते..अमीं अस्ते अमीं अस्ते’- अगर दुनिया में कहीं जन्नत है तो यहीं है..यहीं है।

Monday 13 September 2010

गांधीजी बंटवारे के ख़िलाफ़ थे - होमाई व्यारावाला


                        होमाई व्यारावाला द्वारा खींचा गया छायाचित्र

30 अगस्त 2010- सैय्यद शहाब अलीः जी हां.. गांधीजी बंटवारे के खिलाफ थे और इस फैसले से दुखी भी थे’-यह वक्तव्य था भारत की पहली महिला फोटो जर्नलिस्ट होमाई व्यारावाला का। हाल ही में उपराष्ट्रपति द्वारा लाईफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड से नवाज़ी गयीं 97 वर्षीया होमाई ये कहते हुऐ भावुक हो गयीं। सोमवार, 30 अगस्त 2010 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थित एम.एफ. हुसैन आर्ट गैलरी में आयोजित फोटो प्रदर्शिनी में होमाई व्यारावाला ने कहा कि बंटवारे के समय सत्ता हथियाने की जल्दी ने देश का नुकसान किया और गांधीजी भी बंटवारे से खुश नहीं थे। बंटवारे के लिए हामी भरने वाले कांग्रेस कमेटी के एक सज्जन नेता का कहना था कि जब जिस्म का एक हिस्सा नासूर से ग्रस्त हो जाए तो उसे काट फेंकना ज़ऱूरी हो जाता है। यहां काबिले ग़ौर बात है कि वो नासूर दूर होकर और भी दुखदायी होता नज़र आता है। होमाई व्यारावाला के एक फोटोग्राफ में ‘वो दिन’ भी कैद है जिस दिन देश की तकदीर का फैसला कांग्रेस कमेटी की बैठक में इतनी जल्दबाज़ी में लिया गया था जितनी जल्दी शायद आज के समय में भूकम्प पीड़ितो या बाढ़ पीड़ितो की सहायता भी नहीं की जाती है। ये देश का दुर्भाग्य ही है कि निविणतम अन्धकार में डूबे बूढ़े भारत को शताब्दियों की दासता से मुक्ति दिलाने में जिस व्यक्ति ने सबसे भिन्न और अतुल्य योगदान दिया, उसी व्यक्ति को इतने अहम निर्णय के समय गौण स्थान मिला और शायद उसे मजबूर होकर अपना निर्णय देना पड़ा। सत्ता हथियाने के लालच ने सबकी आंखो पर ऐसे परदे डाले कि वे अपने चन्द सालों की भूख की ख़ातिर सदियों का दुख देश और देशवासियों की छाती पर रख गऐ। यकीनन ये बात भी सच है कि अगर ऐसा न हुआ होता तो इस बात की ज़िम्मेवारी कौन लेगा कि सबकुछ ठीक हो सकता था। लेकिन इतने बड़े फैसले के दिन जब लाखों लोग अपनी सांसे थामे कार्यालय के बाहर बेसब्री से इकट्ठा थे तो कम लोगो की मौजूदगी में फैसला क्यूं लिया गया। बंटवारे के विपक्ष में बोलने वालो को बैठा दिया गया और पक्ष में बोलने वालों को खूब मौका दिया गया। इस एक फैसले के अल्पकालिक परिणामों ने हज़ारों-लाखों को बेघर और न जाने कितनों को अपने अपनों को खोना पड़ा जिसकी ज़िम्मेदारी परोक्ष रूप से यहां डाली जा सकती है। उस दिन जर्नलिस्ट्स को अन्दर जाने के लिए केवल चन्द मिनटों का समय दिया गया था। जिस दौरान होमाई व्यारावाला ने वह छायाचित्र खींचा जो अत्यंत कॉंटरोवर्शल रहा है।

(होमाई जी का उस समय के कनॉट प्लेस का चित्र)
 यह चित्र युवा फोटो जर्नलिस्ट्स के लिए प्रेरणा का स्रोत है और इसे खींचने वाली उस समय की एकमात्र महिला फोटो जर्नलिस्ट चलती- फिरती फोटोग्राफी स्कूल हैं। होमाई ने इस अवसर पर भावी फोटो जर्नलिस्ट्स के सामने अपने समय की फोटोग्राफी सम्बन्धित व्यवहारिक कठिनाईयों और तकनीकी कमियों को भी उजागर किया। जैसे उस समय का सबसे हल्का कैमरा इतना बड़ा था जितना कि आज के समय में सीपीयू का आकार है। जिसे कन्धे पर लटकाकर घूमते हुए होमाई के चित्र अदभुत हैं। हर एक क्लिक के बाद कैमरे के ऊपर की ओर लगे बल्ब को बदलना पड़ता था। इसी तरह इस अवसर पर उनके कई छायाचित्रों को छात्रों के समक्ष प्रोजेक्टर द्वारा प्रस्तुत किया गया। जिनमें कहीं उस समय के कनॉट प्लेस की तस्वीर हमें उस कनॉट प्लेस को दिखाती है जिसे देखकर उस वक्त से जलन महसूस होती है। तो कहीं जवाहर लाल नेहरू अपनी स्टीरियो टाइप इमेज से हटकर नज़र आते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के समय से 1970 तक फोटोग्राफी कर चुकी होमाई के काम की विविधता देखते ही बनती है। विश्व युद्ध के समय भारतीय सेना के जवानों और उस समय की महिलाओं की तस्वीरें आज के युवा को झकझोर देने वाली हैं। वे फोटो जर्नलिज़्म के सही मायने बताने के साथ खींचने के मक़सद पर ज़ोर देती हैं जो कि एक बड़ा मौज़ू है। इस अवसर पर युवाओं को उनसे से रूबरू होने का मौका भी मिला। अपने जीवन के सौ साल पूरे करने से तीन साल दूर व्यारावाला ने अपने ही अंदाज़ में सभी उत्सुक चेहरों के सवालों के जवाब बखूबी दिऐ। उम्र का तकाज़े को पीछे छोड़ उन्होंने ऐसी महफिल जमाई कि सब देखते ही रह गऐ। युवा फोटो जर्नलिस्ट वंदना ने कहा ‘होमाई के उस समय के चित्र देखकर वापस उसी वक्त में जाने का मन हो उठा। उस समय फोटो डेवेलप करने के तरीके तो चौंकाने वाले हैं। एक महिला फोटो जर्नलिस्ट के रूप में काम करना कितना मुश्किल था। उन्होंने बड़े जोशोखरोश से ऑटोग्राफ्स भी दिऐ। प्रदर्शनी मे उपस्थित सभी लोग उनके व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुऐ।’
व्यारावाला की यहां उपस्थिति का श्रेय ए. जे. के किदवई मास कम्युनिकेशन एण्ड रिसर्च सेन्टर, जामिया मिल्लिया इस्लामिया की ही लेक्चरर सबीना गैडीहोक को जाता है जिन्होंने उनके कार्य पर बायोग्राफी भी लिखी। सबीना ने ही अपने समय की इस इकलौती महिला फोटो जर्नलिस्ट को एक बार फिर से फोटोग्राफी जगत में अपनी पहचान के लिए ला खड़ा किया था। उन्होंने होमाई व्यारावाला पर शोधकार्य कर उन पर किताब भी प्रस्तुत की है।