Friday 17 December 2010

इमोशनल रियलिटी का अत्याचार..


पिछले कुछ सालों से हमारा बुद्धु-बक्सा अच्छा-ख़ासा चालू हुआ है। डेली सोप के युग से होते हुए ये ‘चालू-बक्सा’ कई प्रयोग करता रहा है। जिनमें रियलिटी शो ने ज़बरदस्त प्रशंसा बटोरी है। चन्द चैनलों को छोड़कर बाकि सभी मनोरंजन चैनल रियलिटी के रंग में रंगे हुए हैं। यहां तक कि न्यूज़ चैनलों पर भी रियलिटी शो की तूती बोलती है। ज़्यादातर न्यूज़ चैनल इनके एपिसोड बार-बार दिखाकर अपना समय काटते हैं। यही नहीं,हर दिन कोई नया रियलिटी शो जन्म लेता है। कहीं कोई अपने अंदाज़ में इंसाफ़ करता है तो कोई टीवी पर अपना स्वंयवर करता है। रिश्तों को सुलझाने के लिए शो बन रहे हैं। अगर आपको अपने पति या प्रेमी पर शक है तो टीवी पर उनका सच जानिए। यही नहीं अगर आप अपने मां-बाप या बच्चे से परेशान हैं तो कुछ दिन के लिए नऐ मां-बाप या बच्चे ले लीजिए। आपकी फैमिली क्या ज़िन्दगी बदल जाएगी। अंताक्षरी,गायन और नृत्य से शुरु होते हुए अब रियलिटी का कैमरा ज़ाती ज़िन्दगियों में प्रवेश करता जा रहा है। तेज़ी के साथ ड्रॉइंग रूम से होते हुए अब बेडरूम में भी घुसने लगा है।

 
यहां देखने लायक बात यह है कि रियलिटी के कवर में किस तरह की चीज़े हमें परोसी जा रही हैं। ये तो हम सभी जानते हैं कि आजकल रियलिटी शो सीधे-सीधे युवाओं को टारगेट कर रहे हैं। एम. टीवी से लेकर बिंदास तक सभी चैनल युवाओं का आकर्षण-केंद्र बनने की फ़िराक में हैं। इस दौड़ में एक नई होड़ शुरू हुई है। वो है गाली-गुफ़्तार, मारपीट, अश्लीलता और गंद को सजाकर पेश करने की प्रतियोगिता। बिग-बॉस,इमोशनल अत्याचार,एमटीवी रोडी और स्प्लिटविला जैसे शो इस कतार में बड़े ही गर्व के साथ सबसे अव्वल प्रतीत होते हैं। इन्होंने भारतीय टेलीविज़न में तहज़ीब और तमीज़ के बने बनाए ढांचे को बिना आवश्यकता गिराने का काम किया है। इन शो में किसी काबिल उम्मीदवार की तलाश नहीं होती जो पढ़ाई में अच्छा हो या बहुत प्रतिभाशाली हो या मेहनती और लायक हो। बल्कि उजड, बेशर्म, बिगड़ैल और अभद्र शख़्स इनकी खोज हैं। जो बिना मां-बहन किए बात न करें। बिना वजह लड़ सकें। कैमरे की परवाह किए बिना अफ़रा-तफ़री और बदमिज़ाजी फैलाने में माहिर हों। इस सबके बदले में उन्हें मुंह-मांगी शोहरत मिलनी तय है। क्योंकि लोग इस तरह के लोगों को टीवी में देखकर चकित ज़रूर होंगे। इन कार्यक्रमों की बुलंदी का सीधा सा फण्डा है। अलग-अलग तरह के लोगों में यदि ऐसे एक दो मेटीरियल भी डाल दिए जाएं तो शो की टीआरपी छप्पर फाड़ निकलती है।

 
अब अगर आप इसे ग़लत मानते हैं तो जान लीजिए कि इस सब की वजह आप ही हैं। दरअस्ल इनमें से कई लोगों का मानना है कि ये वो ही दिखा रहे हैं जो लोग देखना चाहते हैं। आप ही बताईए कि क्या वाकई आप ये सब देखने के शौकीन हैं ? चलिए हम मान लेते हैं कि कुछ लोग ऐसे हैं जो ये सब देखना चाहते हैं, तो क्या हर वो चीज़ दिखाना संभव है जो लोग देखना चाहते हैं ? शायद कल कुछ लोग रीयल ख़ून-ख़राबा औऱ सेक्स भी बिना किसी रुकावट के देखना चाहेंगे तो क्या केवल मांग के आधार पर ये सब दिखाना जायज़ बन जाता है। क्या हर वो चीज़ करना सही है जो लोग चाहते हैं ? इस हिसाब से तो सती प्रथा भी सही थी और ऑनर किलिंग भी सही है, सड़क पर शराब पीना भी कोई बुरी बात नहीं है,क्योंकि कुछ लोग ये सब भी चाहते हैं। क्या इन प्रोग्रामों के अन्य पहलुओं पर ग़ौर करने की आवश्यकता नहीं है ? क्यों हम ये भूलते जा रहे हैं कि इस चालू-बक्से का हमारी ज़िन्दगी में कुछ रोल भी है ? इसकी कुछ ज़िम्मेदारियां भी हैं ?  
सामाजिक समस्याओं पर काम करने से परहेज़ करने वालों का कहना है कि अब लोग साहित्य और समस्याओं को देखना पसन्द नहीं करते। फिर ‘बालिका वधु’ जैसा सामाजिक सरोकार रखने वाला सीरियल लगातार अव्वल कैसे रहता है। इसकी अच्छी टीआरपी ये संदेश नहीं देती कि लोग सकारात्मक और सुधारात्मक चीज़े देखना अब भी पसन्द करते हैं। बशर्ते आपमें इतनी प्रतिभा हो कि आप उसे सही ढंग से पेश कर सकें। कौन बनेगा करोड़पति जैसा शो बिना किसी अश्लीलता या गंदगी के अपने आप में इतिहास है..कैसे ? क्यों ऐसी नौबत क्यों आ गयी है कि एक मध्यवर्गीय परिवार का व्यक्ति टीवी देखते समय रिमोट हाथ में पकड़कर रखता है ताकि बीच में अचानक आ जाने वाली गाली-गलौज या अश्लीलता से परिवार वालों के सामने शर्मिंदा होने से बचा जा सके।

 सेंसरबोर्ड तो कुम्भकर्ण की नींद ले रहा है। विभिन्न पार्टियों और सम्बन्धित संस्थाओं के एजेण्डा में ये मुद्दे क्यों नहीं समाते ? मुम्बई को बॉम्बे कह देने मात्र पर जमकर हंगामा बरपाया जाता है पर हर दिन इतनी अराजकता दिखाने के बावजूद कोई चूं भी नहीं करता। हमारे चहेते एक्टर भी चुप्पी रखते हैं। शायद इन्डस्ट्री-वाद राष्ट्रवाद से ऊपर है।
आप और हम तो बिना सोचे-समझे इन्हें देखे जा रहे हैं। धड़ाधड़ एसएमएस कर रहे हैं। हमें क्यों नहीं दिखाई देता कि टीआरपी की इस जंग में आम दर्शक ही घायल हो रहा है। किस तरह इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले और देखने वालें दोनो ओर के लोगों की भावनाओं से खेला जाता है।
किस तरह हिंसा और सिर्फ़ हिंसा हमारे छोटे पर्दे पर छा रही है ? एक छोटे से एड से लेकर नाटकों और बच्चों के कार्टून तक नकारात्मक शैली अपनाते जा रहे हैं। बिना कुछ जाने-बूझे बच्चे ये सब देखे जा रहे हैं और जो दिख रहा है उसे ही सही माने जा रहे हैं। एक छोटा बच्चा अपने साथ के बच्चे को चाकू से गोद डालता है, क्या ये टीवी पर दिखाई जाने वाली हिंसा का असर मानना ग़लत है ? रियलिटी शो पर बेइज़्ज़त होकर एक व्यक्ति ख़ुदकुशी कर लेता है। ऐसे ही न जाने कितने वाकयो से अख़बार भरे पड़े हैं। क्या वाकई अब हम नहीं चाहते कि हम और हमारे बच्चे कुछ अच्छा और देखने लायक कुछ देखें। ताकि कुछ बनें न बनें कम से कम एक अच्छा इन्सान बन सकें। इसका जवाब आपको ही देना है अगली बार टीवी खोलते समय सही चीज़ देखने का चुनाव करके।

Thursday 4 November 2010

ट्यूबलाईट नहीं जलती..

ट्यूबलाईट नहीं जलती अब
न लाल होकर, न काली होकर
न फड़फड़ाकर, न लड़खड़ाकर
एक बार में क्या
दस बार में नहीं
प्यार करो चाहे फटकार भी सही
कोई मरता हो जल्दी मरे पर
जूं भी रेंगती नहीं
ट्यूबलाईट अब जलती नहीं

पुराने कमरे की टूटी-फूटी दीवार पर
अन्धेरे और दुर्गन्ध में
रोशनी की एक बूंद भी नहीं
चीख़-पुकार, लहू,
हैवानियत की हुंकार पर भी
ये तो फड़कती नहीं
ट्यूबलाईट अब जलती नहीं

आस्था की अस्थियों में छेद लिए
नाली की गंदगी सा प्रण लिए
मारपीट, गाली-गलौज,
धक्का-मुक्की दिखती नहीं
ट्यूबलाईट अब जलती नहीं

सिली हुई सांसे उधड़ने लगी
सिसकियों की गर्माहट
कब की ठण्डी पड़ गयी
गिड़गिड़ाहट, तड़पन,
घुटन अब मिटती नहीं
ट्यूबलाईट अब जलती नहीं ।।

पर ये एक बार जली थी
ग़ुस्से के ग़ुबार पर
असहमति की पुकार पर
मन में बसे आग़ाज़ के लिए
कुचली गई आवाज़ के लिए
फिर जमकर..
इसे ज़लालत मिली
समझदारों से लानत मिली
इसकी रग-रग उधेड़
हर पुर्ज़े की तफ़्तीश हुई
तब इसे अपनी औक़ात पता चली
इसका मज़हब और ज़ात पता चली

बस..तभी से बेजान पड़ी है
जलती नहीं है अब
पता नहीं क्यों..

Saturday 30 October 2010

नहीं तो सूख जाएगी बारिश...


सैय्यद शहाब अली             
चिलचिलाती धूप, पसीना और अब तो रातें भी गर्म। कहीं लैला चक्रवात का कहर तो कहीं बेमौसम बूंदाबांदी। मौसम की मार से मरने वालो की तादाद में ज़बरदस्त इज़ाफा। पंखे थक गऐ, कूलर अब कूल नहीं हैं और 'ए.सी. की हो गई तैसी।' आज इस ज़मीन पर सबसे बङी चिंता है- बिगङता पर्यावरण। जो कि अब चिंता से चिता बनने के काफी करीब भी है। थोड़े समय पहले हुआ कोपेनहेगन सम्मेलन भी विफल रहा। कारण- विकसित और विकासशील देशों के बीच सहमति न हो पाना। विकसित देश कार्बन गैसों के उत्सर्जन में कमी पर किसी भी कानूनी बाध्यता को स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि वे इसका पालन नहीं कर पाऐंगे और विकासशील देशों की सर्वोच्च प्राथमिकता सामाजिक-आर्थिक स्तर पर  विकास और गरीबी उन्मूलन है। भारत और चीन जैसे देश इसलिए भी इसके खिलाफ़ हैं क्योंकि विकसित देश सब उन्हीं के मत्थे मंडने की फिराक में रहते हैं। कुल मिलाकर आपसी गुटबाज़ी में बंटी हमारी सभ्यता ने अपने अपने हितों की पहरेदारी करने व अनर्गल बहस करने में ज्य़ादा रूचि दिखाई। हालांकि भारत, अमेरिका और ब्राज़ील समेत कुछ देशों ने बिना किसी कानूनी बाध्यता के अपने तौर पर कार्बन गैसों के बढ़ोतरी में कटौती करने के मसौदे को हरी झंडी दी है। किन्तु कुल मिलाकर यदि देखा जाऐ तो रियो से लेकर कोपेनहेगन तक के सफर में धरती को कोई ज्य़ादा चैन की सांस नहीं मिली है। तब से लेकर अब तक बात घिसट-घिसटकर ही आगे बढ़ी है। 


हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण समिति ने चौंकाने वाली रिपोर्ट दी है कि अगर आज की गति से ही जंगल कटते रहे, बर्फ पिघलती रही तो शायद पचास वर्षों में दुनिया के कई निचले हिस्से डूब जाऐंगे। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित रहे तो भी अगली सदी तक समुद्र का स्तर एक मीटर तक बढ़ेगा जिस कारण मालदीव, सैशेल्स और हवाई जैसे द्वीप राज्य डूब जाएंगे। इन स्थानों में 10 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। ऐसे ही न जाने कितने डरावने आंकङे जानने के बावजूद हमारे प्रयास अत्यंत मंद हैं। एक शोध के मुताबिक वैज्ञानिको ने ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ के लिए कार्बनडाईऑक्साइड को जितना ज़िम्मेदार माना है, वह उससे 50 प्रतिशत अधिक घातक है। यदि एक शोध हमारे ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ रोकने के प्रयासों के आंकने के लिऐ हो तो यकीनन अब तक उठाऐ गये कदम 50 प्रतिशत से भी ज्य़ादा कम साबित होंगे या यूं कहें कि ढीली मुट्ठी में नमक के जैसे।

इस सब के बावजूद ख़ासतौर से विकसित देशों का रवैया तो यही बताता है कि वे पिछड़े देशों पर किसी विपदा के आने के इन्तज़ार में ही बैठे हैं। किन्तु इल्ज़ाम सिर्फ विकसित देशों पर ही क्यों.. क्योंकि आपदा जब आऐगी तो वो विकसित और विकासशील का भेद नहीं करेगी। उसके कटघरे में तो सम्पूर्ण मानव जाति खड़ी होगी। इसलिए उपाय भी मनुष्यों को ही करना है न कि दो खेमों में बंटे देशों को। जिस प्रकार ग़ुलाम प्रथा या भारत में सति प्रथा से निबटने के लिए किसी प्रतिशत को आधार या लक्ष्य नहीं रखा था तो पर्यावरण के इस गंभीर मुद्दे को क्यों आंकड़ो के खेल में उलझाकर एक तरफ किया जा रहा है.. आखिर कब तक बहाने बनाकर इससे आंखें मूंद सकेंगे हम.. जिस प्रकार घर में संकट गहराने पर सभी परिवारजन लोभ व बहाने छोड़ एकजुट होते हैं उसी तरह सभी देशों को मिलकर पूरी ‘ईमानदारी और जोशोखरोश’ से अपनी भूमिका निभानी होगी। यह बात भी सही है कि सभी देशो की अपने नागरिकों के प्रति ज़िम्मेदारी और जवाबदेही है किंतु यह कार्य भी उन्हीं नागरिकों के जीवन से जुड़ा है इसलिए इस सबको ढाल के रूप में इस्तेमाल करना ज्य़ादा समय तक नहीं चल पाएगा।
यहीं से बात आती है कि सरकार अपनी ओर से कार्बन ट्रेडिंग, वनीकरण, सौर ऊर्जा को बढ़ावा और इको-फ्रैन्डली यातायात साधनों को बढ़ावे जैसे उपाय कर रही है, भले ही उन्हें और शिद्दत से किए जाने की ज़रूरत है। पर जिन नागरिकों की सुरक्षा की यह लड़ाई है वे खुद इसके प्रति कितने संवेदनशील हैं...
पिछले एक दशक में पर्यावरण सम्बन्धी जागरुकता काफी बढी है जिसमें मीडिया का योगदान प्रशंसनीय है। किन्तु अब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अक्सर यही सोचते हैं कि ‘मैं भला क्या कर सकता हूं ’? या ‘मेरे अकेले के करने से थोड़े ही ग्लोबल वॉर्मिंग खत्म हो जायेगी?’ यहां बात काबिल-ऐ-ग़ौर ये है कि जब एक आम आदमी किसी वस्तु या सेवा का उपभोग करता है तो वह उस वस्ते या सेवा के उत्पादन को अपनी सहमति प्रस्तुत करता है। उसके उत्पादन को प्रोत्साहित करता है और एक तरह से अपना ‘मत’ देता है। इस प्रकार यदि हम उन वस्तुओं व सेवाओं का तिरस्कार करे जो पर्यावरण को हानि पहुंचाती हैं तो एक आम आदमी होने के नाते हमारा इतना प्रयास भी सराहनीय होगा।
इसके अलावा ऐसी की जगह कूलर का इस्तेमाल, कार-पूलिंग करना, पेपर बैग का उपयोग और बेवजह पैट्रोल फूंकना छोड़कर हम अपना भला कर सकते हैं और ये हम रोज़ की दिनचर्या में बखूबी कर सकते हैं। नहीं तो जल्द ही कुदरत के गुस्से में खाक होने का समय आ सकता है। न जाने कब यह धरती करवट बदल ले। इस पर ज़रा नहीं ख़ूब सोचिये।


                                                 

बेआवाज़ तालियों की गूँज...

सैय्यद शहाब अली


बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम
ख्वाब अब आते नहीं, न ही आते तुम

प्यार की तबियत खराब कर गए
जफा की सुई दिल के ज़ालिम पार कर गए
ख्वाहिशे ग़मगीन सी रहती हैं यूँ गुमसुम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम

नाहक वफ़ा के बदले ही शोक मिल गया
राह-ऐ-वफ़ा में चलते-चलते रोक क्यों गया ?
तेरे प्यार की सहलाहट को तरस रहे हैं हम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम

काश तुम फितरती न यूँ सनम होते
खानाबदोश जिंदगी से दरगुज़र होते
पर इकबाले जुर्म कर भी लो तो मिट चुके हैं हम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम

हुस्न का अंजाम न देखो तो अच्छा है
कभी-कभी ये गम  प्यार से भी अच्छा है
पर चख-चखकर ये मज़ा थक गए हैं हम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम !!

ख़ुशी की चुभन...

सैय्यद शहाब अली

इस ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

याद है पर फिर भी नहीं
ज़ख़्म का रंग देखो
यूं ही नहीं है
आदत ये रोने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

बेज़ुबानी ठीक नहीं पर
कोई क्या करे
फिर भी
है क्यूं ये
शराफ़त चुप रहने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

वो चुप नज़रे
जो यहीं थीं
कोई न मानें
पर मैंने सुनीं थीं
है अब भी
दबिश कुछ होने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

एक बार देखना है
छूना है
कुछ पूछना है
लेकिन क्यूं नहीं है
तकदीर ये सोने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

वक्त बुरा था
अब भी है
गीली सांस गले तक
आख़िर क्यूं नहीं
हिम्मत मरने की
देखो न...

ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

चल तो रहा है
सब कुछ
यूं ही
थक-थककर उजड़कर
हममें ही शायद
कुव्वत नहीं बढ़ने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

कमी कितनी है यहां
दिखती नहीं
ख़ुशी बरसे भी तो
टिकती नहीं
रह-रहकर रुक-रुककर
यादों के जाले से
हिम्मत नहीं छूटने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

Monday 18 October 2010

झोली में हैं पदक और आंखों में पानी...

सैय्यद शहाब अली


बिलकुल अभी-अभी दो ख़बरों पर नज़र गई। दोनों ही औरतों से ताल्लुक रखती हैं। एक को पढ़कर आंखे नम हुईं और ग़ुस्से का अहसास हुआ तो तभी दूसरी को पढ़कर दिल को ठण्डक मिली और बहुत फ़क्र हुआ। पहली औरतों पर होने वाले अत्याचारों की पुष्टि करती है तो दूसरी ऐसा करने वालो के मुंह पर तमाचा जड़ती है। 
1. हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) द्वारा संयुक्त रूप से किए गए अध्ययन के अनुसार राजधानी की 26 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा की वजह से मानसिक रोगी हैं। जबकि 5 प्रतिशत महिलाओं की स्थिति इतनी गंभीर पाई गई कि उन्हें मानसिक रोग काउंसलर की ज़रूरत महसूस हुई।
2. वहीं दिल्ली में अभी-अभी सम्पन्न हुए कॉमनवेल्थ खेलों में पहली बार 13 स्वर्ण समेत 36 पदक महिलाओं ने जीते। जिसमें बैडमिंटन में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला शटलर सायना नेहवाल, एथलेटिक्स में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला कृष्णा पुनिया, तीरंदाज़ी में व्यक्तिगत स्पर्धा का स्वर्ण जीतने वाली पहली तीरंदाज़ दीपिका, डोला, बोम्बाल्या, वेटलिफ्टिंग में लगातार दो बार खेलों में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला वेटलिफ्टर रेनु बाला और महिला कुश्ती में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला पहलवान गीता देवी आदि हैं।

      इन दोनों ही ख़बरों पर ग़ौर करने पर दिमाग़ में कई सवाल उठते हैं। एक ओर महिलाएं प्रताड़ित हो रही हैं और मानसिक रोगी बन रहीं हैं वहीं दूसरी तरफ़ यही महिलाएं देश को खेलों में सोने की सौग़ात दे रहीं है और वो भी ऐसे माहौल में जहां लगभग हर लड़की मर्दों द्वारा ‘मानसिक बलात्कार’ की शिकार होती हैं और उन्हें हर जगह इन्फीरियर होने का अहसास कराने से कोई नहीं चूकता। सोचिए यदि इन्हें सही मायनों में बराबरी और सही अवसर प्रदान किए जाएं तो पदको की ये संख्या कितनी हो सकती है? पदक जीतने वाली ज़्यादातर लाडलियां ऐसे इलाको से हैं जहां महिलाओं की स्थिति माशाअल्लाह है। आपकी नज़र में ये पदक उन के लिए क़रारा जवाब नहीं हैं? चाहे फिर भिवानी की पहलवान बहनों का उदाहरण लें या फिर ऑटो चालक की बेटी दीपिका का। सभी ने अपने आपको एक खिलाड़ी के तौर पर साबित करने के साथ ही पूरे देश की लड़कियों को कुछ कर दिखाने का जज़्बा दिया है और लैंगिक भेदभाव करने वालों को उनकी औक़ात दिखाई है। इनके मां-बाप की मेहनत पर भी ग़ौर करने की ज़रूरत है जिन्होंने अपनी बेटियों पर विश्वास जताया और उनके दृढ़ निश्चय और हौंसलों में अपने सपने भी सजाये। इन्होंने उन सभी दब्बू सोच रखने वाले माता-पिताओं के समक्ष एक उदाहरण पेश किया है, एक नया रास्ता दिया है। इन सभी की जय-जयकार।
लेकिन ऐसा नहीं है कि यह देश में पहली बार है जब लड़कियों ने कुछ ख़ास किया है। देश में लगभग सभी क्षेत्रों में लड़कियां अपना लोहा मनवाती रहीं हैं। वर्तमान में सोनिया गांधी और राष्ट्रपत्नि प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जैसी मिसालें हमारे बीच ही हैं। लोगों के नज़रिये में पिछले कुछ सालों में काफ़ी हद तक बदलाव भी आया है। लेकिन एक व्यापक स्तर पर उड़ान अब भी बाकी है। सोचने वाली बात है कि औरतों को समान अवसर देने का दंभ भरने वाला हमारा हिन्दुस्तान लैंगिक भेदभाव पर 165 देशों के अध्ययन में 115 वें स्थान पर आता है। इसी तरह हर दिन एक नया सर्वे हमें हमारे समाज की असलियत से रूबरू कराता है। अपने गिरेबां में झांकने को मजबूर करता है। ऐसे में कॉमनवेल्थ खेलों में महिलाओं के इतने पदक जीतने के मायने अपनें आप में कुछ अलग हैं। एक ओर हैं लगातार मानसिक और शारीरिक हिंसा का शिकार होती महिलाएं जिन्हें दबाया जाता है। बीमारियों की ओर जाने-अन्जाने धकेल दिया जाता है। और दूसरी ओर हैं वो महिलाएं जिन्हें अवसर दिये गये और जिन्होंने बेहतरीन मानसिक व शारीरिक शक्ति का परिचय दिया है। ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड और कनाडा समेत कई देशों की महिलाओं को पछाड़कर हमारी इन्हीं भारतीय महिलाओं ने चिंघाड़कर बताया है कि वो भी किसी से कम नहीं बशर्ते उन्हें भी परिवार, समाज और देश में अहमियत और इज़्ज़त मिले। कॉमनवेल्थ खेल, जिनमें वे देश प्रतिस्पर्धा करते हैं जो पहले ब्रिटिश शासन के ग़ुलाम रहें हैं, में इन लड़कियों ने लिंग पर आधारित ग़ुलामी को तोड़ा है। इसमें उनके अत्याचारों, हिंसा, लालछन और बंधनों से मुक्त हो उनमुक्त गगन में उड़ने की लालसा और काबिलियत दिखाई पड़ती है। हम सभी के लिए ये दोनों उदाहरण काफ़ी कुछ स्पष्ट करते हैं।

Thursday 23 September 2010

पाकिस्तान की मुहब्बत है कश्मीर ???

सैय्यद शहाब अली
20-09-2010

कट्टरपंथी सोच रखने वाले लोग चाहे किसी भी मज़हब या समुदाय के हों, उनकी सोच की दौड़ एक ही जगह आकर ख़त्म होती है। किसी भी समस्या का हल वे युद्ध ही बताते हैं। खूनी संघर्ष में होने वाली जान-माल की हानि से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। न ही वे इस बारे में सोचते हैं कि युद्ध किसी भी देश को कितने वर्ष पीछे धकेल देता है। उसके विकास की रफ़्तार को कई सालों का ब्रेक लगा देता है। उनका काम केवल बक देना होता है। चाहे फिर कश्मीर जैसा गम्भीर मुद्दा ही क्यों न हो। कश्मीर की समस्या को दो दशक बीत गए हैं और समाधान होता नज़र नहीं आता है। उसके ऊपर कट्टरपंथी अमन-पसन्द लोगो को भी उकसाने से बाज़ नहीं आते। कश्मीर का ‘क’ भी न समझने वाले भी सीधे ख़ून-ख़राबे की बातों पर उतर आते हैं। ब्लॉग पटे पड़े हैं ऐसे संकीर्णवादी सोच रखने वालों से और हर गली कूचे में ऐसे कुएं के मेंढक मिल ही जाते हैं। मुख्यधारा की मीडिया की लाख कोशिशों के बावजूद बैर की भाषा पढ़ाने वाले एक ऐसी खाई का निर्माण करने में जुटे हैं जिसमें दोनों छोर के लोग गिरेंगे।
आजकल फिर से घाटी सुलग रही है। प्रदर्शन की आग में लोग झुलस रहे हैं। पिछले हफ्ते तक भी करीब 25 लोग कश्मीर में अभी के दंगों में मारे जा चुके हैं। घाटी के पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी नेता ज़हर उगल-उगलकर नौजवानों के दिमाग़ो पर कब्ज़ा जमा अपनी मुरादे पूरी करने में बुरी तरह जुटे हैं। वहीं हमारे सियासतदान बैठकों में जाकर बैठने के अलावा कुछ करते नहीं दिख रहे हैं। चाहे फिर वो सर्वदलीय बैठक ही क्यों न हो...सभी दलों को बोलने का मौका कितना मिलता है उन्ही से पूछें। इस सब के बीच हमेशा की तरह घुन बनी पिस रही है मासूम आवाम। वो कश्मीरी जो बड़े-बड़े धन्ना सेठों के फार्मों में मेहनत मज़दूरी कर हड्डियां घिस मरते रहे थे, आए दिन या तो बम विस्फोट में मर रहें हैं या फिर पुलिस फ़ायरिंग में। उनकी ज़िन्दगियों में सकारात्मक कुछ भी नहीं है। 1990 से लेकर अब तक आम कश्मीरी लगातार हिंसा का शिकार हो रहा है। इन सालों में उनकी ज़िन्दगी ख़ुशहाल होना तो दूर बदतर होती रही है। आए दिन दंगे और फिर कर्फ्यू रोज़गार को खा रहें हैं।

हम अक्सर कहते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। लेकिन जिस कश्मीर को हम नक्शे में देखते हैं उसका आधा भाग चीन और पाकिस्तान कब्ज़ा चुके हैं और घुसपैठ बढ़ ही रही है। कश्मीर के लिए पाकिस्तान का पागलपन किसी से छुपा नहीं है। वो तो उस आशिक़ की तरह व्यवहार करता रहा है जो अपनी मुहब्बत को पाने की ज़िद में इतना पागल है कि उसे उसी की कोई परवाह नहीं है जिसे वो पाना चाहता है। उसे वरग़लाने से लेकर उसके चेहरे पर तेज़ाब के छींटे तक देने में उसे गुरेज़ नहीं है। अगर ऐसा न होता तो वो उस जगह को कभी आतंक-ग्रसित नहीं बनाता। वहीं भारत उस श्याने आशिक़ की तरह बर्ताव करता रहा है जो इस बारे में बात करने से पीछा छुड़ाता नज़र आता है। किन्तु ये टालमटोल ज़्यादा समय तक नहीं चल पाएगी। आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर एक्ट (AFSPA) से भी कब तक हालात काबू करने की एक्टिंग हम अपने ही आप से कर पाएंगे ? इसी तरह सेना की ज़्यादतियों के किस्से सुनने को मिलेंगे और सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेता इन्ही बातों का फायदा उठाकर भोले भाले लोगो को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते रहेंगे। कर्फ्यू लगते रहेंगे, दंगे होते रहेंगे और कश्मीर के दामन पर ख़ून के छींटे लगते रहेंगे। क्योंकि कश्मीर की समस्या ऐसी समस्या नहीं है जिसे गोलाबारी और सिर्फ सख़्त कानूनों से सुलझाया जा सके। असल में ये समस्या भारत द्बारा कश्मीरियों का दिल जीतने की है। उन्हे ये अहसास कराने की है कि इस मुल्क से बेहतर उनके बच्चों का भविष्य कहीं और संभव नहीं है। यह सत्य भी है और कश्मीरी इसका अहसास करने भी लगें हैं। हाल ही के चुनावो में लोगो की हिस्सेदारी और प्रधानमंत्री की सफ़ल यात्रा नें इस सम्बंध में एक आशा की किरण भी दिखाई थी। वहीं पाकिस्तान के हालात सबके सामने मौजूद ही हैं। इस्मत चुग़ताई जी ने एक बार कहा था कि पाकिस्तान ने बस लोटे बनाए हैं। यही उसकी तरक्की है। अब अगर ये कहा जाए कि वहां लोटे की जगह आतंकवादियों नें ले ली है तो ग़लत नहीं होगा। ऐसे मुल्क में किसी का क्या भविष्य होगा ? इसके अलावा कश्मीर की आवाम को भी ये समझना होगा कि इस तरह पत्थरबाज़ी और प्रदर्शन से कुछ हासिल होना मुमकिन नहीं है। क्योंकि बलिदान और बलि चढ़ने में फर्क होता है। एक बार एक आम कश्मीरी इस बात को समझ जाएगा तो अपने आप को आवाम का रहनुमां करार देने वालो के मुंह पर उन्ही का जूता होगा।
यूं तो कश्मीर की संप्रभुता से सम्बंधित समाधान पर अब तक ग्यारह फॉर्मूले दिये जा चुके हैं। जिनमें कश्मीर को अर्द्धस्वतंत्र बनाने, दूसरे देशों के आइडिये सहित, ‘इस हाथ ले और उस हाथ दे’ की चिनाब योजना भी है जिसमें गांवो, कस्बो को बांटने का सुझाव है। इस सुझाव के अनुसार चिनाब नदी ही LOC होगी। इसमें कश्मीर को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में छोड़ने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि एक आम भारतीय भी यह बात समझता है कि स्वतंत्र होने के पीछे कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं की क्या सोच है। इसके अलावा फॉर्मूला चाहे जो हो उस पर अमल करने के लिए दोनों देशो की ओर से गहरा चिंतन-मनन अनिवार्य है। जिसके लिए हर पक्ष को अपनी ज़िद के साथ-साथ अहम् को भी त्यागकर खुले दिमाग़ से आगे आना होगा। ताकि जिन लोगों के लिए ये सब किया जा रहा है उनकी आवाज़ न दब जाए। क्योंकि जगह की कीमत लोगों से होती है, उनके बिना वो कुछ भी नहीं। तभी हम फिर से अपने कश्मीर के लिए बिना शक-शुबह के कह सकेंगे कि ‘गर फिरदौस-ए-ज़मीं अस्ते..अमीं अस्ते अमीं अस्ते’- अगर दुनिया में कहीं जन्नत है तो यहीं है..यहीं है।

Monday 13 September 2010

गांधीजी बंटवारे के ख़िलाफ़ थे - होमाई व्यारावाला


                        होमाई व्यारावाला द्वारा खींचा गया छायाचित्र

30 अगस्त 2010- सैय्यद शहाब अलीः जी हां.. गांधीजी बंटवारे के खिलाफ थे और इस फैसले से दुखी भी थे’-यह वक्तव्य था भारत की पहली महिला फोटो जर्नलिस्ट होमाई व्यारावाला का। हाल ही में उपराष्ट्रपति द्वारा लाईफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड से नवाज़ी गयीं 97 वर्षीया होमाई ये कहते हुऐ भावुक हो गयीं। सोमवार, 30 अगस्त 2010 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थित एम.एफ. हुसैन आर्ट गैलरी में आयोजित फोटो प्रदर्शिनी में होमाई व्यारावाला ने कहा कि बंटवारे के समय सत्ता हथियाने की जल्दी ने देश का नुकसान किया और गांधीजी भी बंटवारे से खुश नहीं थे। बंटवारे के लिए हामी भरने वाले कांग्रेस कमेटी के एक सज्जन नेता का कहना था कि जब जिस्म का एक हिस्सा नासूर से ग्रस्त हो जाए तो उसे काट फेंकना ज़ऱूरी हो जाता है। यहां काबिले ग़ौर बात है कि वो नासूर दूर होकर और भी दुखदायी होता नज़र आता है। होमाई व्यारावाला के एक फोटोग्राफ में ‘वो दिन’ भी कैद है जिस दिन देश की तकदीर का फैसला कांग्रेस कमेटी की बैठक में इतनी जल्दबाज़ी में लिया गया था जितनी जल्दी शायद आज के समय में भूकम्प पीड़ितो या बाढ़ पीड़ितो की सहायता भी नहीं की जाती है। ये देश का दुर्भाग्य ही है कि निविणतम अन्धकार में डूबे बूढ़े भारत को शताब्दियों की दासता से मुक्ति दिलाने में जिस व्यक्ति ने सबसे भिन्न और अतुल्य योगदान दिया, उसी व्यक्ति को इतने अहम निर्णय के समय गौण स्थान मिला और शायद उसे मजबूर होकर अपना निर्णय देना पड़ा। सत्ता हथियाने के लालच ने सबकी आंखो पर ऐसे परदे डाले कि वे अपने चन्द सालों की भूख की ख़ातिर सदियों का दुख देश और देशवासियों की छाती पर रख गऐ। यकीनन ये बात भी सच है कि अगर ऐसा न हुआ होता तो इस बात की ज़िम्मेवारी कौन लेगा कि सबकुछ ठीक हो सकता था। लेकिन इतने बड़े फैसले के दिन जब लाखों लोग अपनी सांसे थामे कार्यालय के बाहर बेसब्री से इकट्ठा थे तो कम लोगो की मौजूदगी में फैसला क्यूं लिया गया। बंटवारे के विपक्ष में बोलने वालो को बैठा दिया गया और पक्ष में बोलने वालों को खूब मौका दिया गया। इस एक फैसले के अल्पकालिक परिणामों ने हज़ारों-लाखों को बेघर और न जाने कितनों को अपने अपनों को खोना पड़ा जिसकी ज़िम्मेदारी परोक्ष रूप से यहां डाली जा सकती है। उस दिन जर्नलिस्ट्स को अन्दर जाने के लिए केवल चन्द मिनटों का समय दिया गया था। जिस दौरान होमाई व्यारावाला ने वह छायाचित्र खींचा जो अत्यंत कॉंटरोवर्शल रहा है।

(होमाई जी का उस समय के कनॉट प्लेस का चित्र)
 यह चित्र युवा फोटो जर्नलिस्ट्स के लिए प्रेरणा का स्रोत है और इसे खींचने वाली उस समय की एकमात्र महिला फोटो जर्नलिस्ट चलती- फिरती फोटोग्राफी स्कूल हैं। होमाई ने इस अवसर पर भावी फोटो जर्नलिस्ट्स के सामने अपने समय की फोटोग्राफी सम्बन्धित व्यवहारिक कठिनाईयों और तकनीकी कमियों को भी उजागर किया। जैसे उस समय का सबसे हल्का कैमरा इतना बड़ा था जितना कि आज के समय में सीपीयू का आकार है। जिसे कन्धे पर लटकाकर घूमते हुए होमाई के चित्र अदभुत हैं। हर एक क्लिक के बाद कैमरे के ऊपर की ओर लगे बल्ब को बदलना पड़ता था। इसी तरह इस अवसर पर उनके कई छायाचित्रों को छात्रों के समक्ष प्रोजेक्टर द्वारा प्रस्तुत किया गया। जिनमें कहीं उस समय के कनॉट प्लेस की तस्वीर हमें उस कनॉट प्लेस को दिखाती है जिसे देखकर उस वक्त से जलन महसूस होती है। तो कहीं जवाहर लाल नेहरू अपनी स्टीरियो टाइप इमेज से हटकर नज़र आते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के समय से 1970 तक फोटोग्राफी कर चुकी होमाई के काम की विविधता देखते ही बनती है। विश्व युद्ध के समय भारतीय सेना के जवानों और उस समय की महिलाओं की तस्वीरें आज के युवा को झकझोर देने वाली हैं। वे फोटो जर्नलिज़्म के सही मायने बताने के साथ खींचने के मक़सद पर ज़ोर देती हैं जो कि एक बड़ा मौज़ू है। इस अवसर पर युवाओं को उनसे से रूबरू होने का मौका भी मिला। अपने जीवन के सौ साल पूरे करने से तीन साल दूर व्यारावाला ने अपने ही अंदाज़ में सभी उत्सुक चेहरों के सवालों के जवाब बखूबी दिऐ। उम्र का तकाज़े को पीछे छोड़ उन्होंने ऐसी महफिल जमाई कि सब देखते ही रह गऐ। युवा फोटो जर्नलिस्ट वंदना ने कहा ‘होमाई के उस समय के चित्र देखकर वापस उसी वक्त में जाने का मन हो उठा। उस समय फोटो डेवेलप करने के तरीके तो चौंकाने वाले हैं। एक महिला फोटो जर्नलिस्ट के रूप में काम करना कितना मुश्किल था। उन्होंने बड़े जोशोखरोश से ऑटोग्राफ्स भी दिऐ। प्रदर्शनी मे उपस्थित सभी लोग उनके व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुऐ।’
व्यारावाला की यहां उपस्थिति का श्रेय ए. जे. के किदवई मास कम्युनिकेशन एण्ड रिसर्च सेन्टर, जामिया मिल्लिया इस्लामिया की ही लेक्चरर सबीना गैडीहोक को जाता है जिन्होंने उनके कार्य पर बायोग्राफी भी लिखी। सबीना ने ही अपने समय की इस इकलौती महिला फोटो जर्नलिस्ट को एक बार फिर से फोटोग्राफी जगत में अपनी पहचान के लिए ला खड़ा किया था। उन्होंने होमाई व्यारावाला पर शोधकार्य कर उन पर किताब भी प्रस्तुत की है।