Saturday 30 October 2010

नहीं तो सूख जाएगी बारिश...


सैय्यद शहाब अली             
चिलचिलाती धूप, पसीना और अब तो रातें भी गर्म। कहीं लैला चक्रवात का कहर तो कहीं बेमौसम बूंदाबांदी। मौसम की मार से मरने वालो की तादाद में ज़बरदस्त इज़ाफा। पंखे थक गऐ, कूलर अब कूल नहीं हैं और 'ए.सी. की हो गई तैसी।' आज इस ज़मीन पर सबसे बङी चिंता है- बिगङता पर्यावरण। जो कि अब चिंता से चिता बनने के काफी करीब भी है। थोड़े समय पहले हुआ कोपेनहेगन सम्मेलन भी विफल रहा। कारण- विकसित और विकासशील देशों के बीच सहमति न हो पाना। विकसित देश कार्बन गैसों के उत्सर्जन में कमी पर किसी भी कानूनी बाध्यता को स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि वे इसका पालन नहीं कर पाऐंगे और विकासशील देशों की सर्वोच्च प्राथमिकता सामाजिक-आर्थिक स्तर पर  विकास और गरीबी उन्मूलन है। भारत और चीन जैसे देश इसलिए भी इसके खिलाफ़ हैं क्योंकि विकसित देश सब उन्हीं के मत्थे मंडने की फिराक में रहते हैं। कुल मिलाकर आपसी गुटबाज़ी में बंटी हमारी सभ्यता ने अपने अपने हितों की पहरेदारी करने व अनर्गल बहस करने में ज्य़ादा रूचि दिखाई। हालांकि भारत, अमेरिका और ब्राज़ील समेत कुछ देशों ने बिना किसी कानूनी बाध्यता के अपने तौर पर कार्बन गैसों के बढ़ोतरी में कटौती करने के मसौदे को हरी झंडी दी है। किन्तु कुल मिलाकर यदि देखा जाऐ तो रियो से लेकर कोपेनहेगन तक के सफर में धरती को कोई ज्य़ादा चैन की सांस नहीं मिली है। तब से लेकर अब तक बात घिसट-घिसटकर ही आगे बढ़ी है। 


हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण समिति ने चौंकाने वाली रिपोर्ट दी है कि अगर आज की गति से ही जंगल कटते रहे, बर्फ पिघलती रही तो शायद पचास वर्षों में दुनिया के कई निचले हिस्से डूब जाऐंगे। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित रहे तो भी अगली सदी तक समुद्र का स्तर एक मीटर तक बढ़ेगा जिस कारण मालदीव, सैशेल्स और हवाई जैसे द्वीप राज्य डूब जाएंगे। इन स्थानों में 10 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। ऐसे ही न जाने कितने डरावने आंकङे जानने के बावजूद हमारे प्रयास अत्यंत मंद हैं। एक शोध के मुताबिक वैज्ञानिको ने ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ के लिए कार्बनडाईऑक्साइड को जितना ज़िम्मेदार माना है, वह उससे 50 प्रतिशत अधिक घातक है। यदि एक शोध हमारे ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ रोकने के प्रयासों के आंकने के लिऐ हो तो यकीनन अब तक उठाऐ गये कदम 50 प्रतिशत से भी ज्य़ादा कम साबित होंगे या यूं कहें कि ढीली मुट्ठी में नमक के जैसे।

इस सब के बावजूद ख़ासतौर से विकसित देशों का रवैया तो यही बताता है कि वे पिछड़े देशों पर किसी विपदा के आने के इन्तज़ार में ही बैठे हैं। किन्तु इल्ज़ाम सिर्फ विकसित देशों पर ही क्यों.. क्योंकि आपदा जब आऐगी तो वो विकसित और विकासशील का भेद नहीं करेगी। उसके कटघरे में तो सम्पूर्ण मानव जाति खड़ी होगी। इसलिए उपाय भी मनुष्यों को ही करना है न कि दो खेमों में बंटे देशों को। जिस प्रकार ग़ुलाम प्रथा या भारत में सति प्रथा से निबटने के लिए किसी प्रतिशत को आधार या लक्ष्य नहीं रखा था तो पर्यावरण के इस गंभीर मुद्दे को क्यों आंकड़ो के खेल में उलझाकर एक तरफ किया जा रहा है.. आखिर कब तक बहाने बनाकर इससे आंखें मूंद सकेंगे हम.. जिस प्रकार घर में संकट गहराने पर सभी परिवारजन लोभ व बहाने छोड़ एकजुट होते हैं उसी तरह सभी देशों को मिलकर पूरी ‘ईमानदारी और जोशोखरोश’ से अपनी भूमिका निभानी होगी। यह बात भी सही है कि सभी देशो की अपने नागरिकों के प्रति ज़िम्मेदारी और जवाबदेही है किंतु यह कार्य भी उन्हीं नागरिकों के जीवन से जुड़ा है इसलिए इस सबको ढाल के रूप में इस्तेमाल करना ज्य़ादा समय तक नहीं चल पाएगा।
यहीं से बात आती है कि सरकार अपनी ओर से कार्बन ट्रेडिंग, वनीकरण, सौर ऊर्जा को बढ़ावा और इको-फ्रैन्डली यातायात साधनों को बढ़ावे जैसे उपाय कर रही है, भले ही उन्हें और शिद्दत से किए जाने की ज़रूरत है। पर जिन नागरिकों की सुरक्षा की यह लड़ाई है वे खुद इसके प्रति कितने संवेदनशील हैं...
पिछले एक दशक में पर्यावरण सम्बन्धी जागरुकता काफी बढी है जिसमें मीडिया का योगदान प्रशंसनीय है। किन्तु अब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अक्सर यही सोचते हैं कि ‘मैं भला क्या कर सकता हूं ’? या ‘मेरे अकेले के करने से थोड़े ही ग्लोबल वॉर्मिंग खत्म हो जायेगी?’ यहां बात काबिल-ऐ-ग़ौर ये है कि जब एक आम आदमी किसी वस्तु या सेवा का उपभोग करता है तो वह उस वस्ते या सेवा के उत्पादन को अपनी सहमति प्रस्तुत करता है। उसके उत्पादन को प्रोत्साहित करता है और एक तरह से अपना ‘मत’ देता है। इस प्रकार यदि हम उन वस्तुओं व सेवाओं का तिरस्कार करे जो पर्यावरण को हानि पहुंचाती हैं तो एक आम आदमी होने के नाते हमारा इतना प्रयास भी सराहनीय होगा।
इसके अलावा ऐसी की जगह कूलर का इस्तेमाल, कार-पूलिंग करना, पेपर बैग का उपयोग और बेवजह पैट्रोल फूंकना छोड़कर हम अपना भला कर सकते हैं और ये हम रोज़ की दिनचर्या में बखूबी कर सकते हैं। नहीं तो जल्द ही कुदरत के गुस्से में खाक होने का समय आ सकता है। न जाने कब यह धरती करवट बदल ले। इस पर ज़रा नहीं ख़ूब सोचिये।


                                                 

बेआवाज़ तालियों की गूँज...

सैय्यद शहाब अली


बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम
ख्वाब अब आते नहीं, न ही आते तुम

प्यार की तबियत खराब कर गए
जफा की सुई दिल के ज़ालिम पार कर गए
ख्वाहिशे ग़मगीन सी रहती हैं यूँ गुमसुम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम

नाहक वफ़ा के बदले ही शोक मिल गया
राह-ऐ-वफ़ा में चलते-चलते रोक क्यों गया ?
तेरे प्यार की सहलाहट को तरस रहे हैं हम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम

काश तुम फितरती न यूँ सनम होते
खानाबदोश जिंदगी से दरगुज़र होते
पर इकबाले जुर्म कर भी लो तो मिट चुके हैं हम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम

हुस्न का अंजाम न देखो तो अच्छा है
कभी-कभी ये गम  प्यार से भी अच्छा है
पर चख-चखकर ये मज़ा थक गए हैं हम
बेआवाज़ तालियों की गूँज में हैं गुम !!

ख़ुशी की चुभन...

सैय्यद शहाब अली

इस ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

याद है पर फिर भी नहीं
ज़ख़्म का रंग देखो
यूं ही नहीं है
आदत ये रोने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

बेज़ुबानी ठीक नहीं पर
कोई क्या करे
फिर भी
है क्यूं ये
शराफ़त चुप रहने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

वो चुप नज़रे
जो यहीं थीं
कोई न मानें
पर मैंने सुनीं थीं
है अब भी
दबिश कुछ होने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

एक बार देखना है
छूना है
कुछ पूछना है
लेकिन क्यूं नहीं है
तकदीर ये सोने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

वक्त बुरा था
अब भी है
गीली सांस गले तक
आख़िर क्यूं नहीं
हिम्मत मरने की
देखो न...

ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

चल तो रहा है
सब कुछ
यूं ही
थक-थककर उजड़कर
हममें ही शायद
कुव्वत नहीं बढ़ने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

कमी कितनी है यहां
दिखती नहीं
ख़ुशी बरसे भी तो
टिकती नहीं
रह-रहकर रुक-रुककर
यादों के जाले से
हिम्मत नहीं छूटने की
देखो न...
ख़ुशी में भी चुभन सी है
आपके न होने की
कुछ खोने की

Monday 18 October 2010

झोली में हैं पदक और आंखों में पानी...

सैय्यद शहाब अली


बिलकुल अभी-अभी दो ख़बरों पर नज़र गई। दोनों ही औरतों से ताल्लुक रखती हैं। एक को पढ़कर आंखे नम हुईं और ग़ुस्से का अहसास हुआ तो तभी दूसरी को पढ़कर दिल को ठण्डक मिली और बहुत फ़क्र हुआ। पहली औरतों पर होने वाले अत्याचारों की पुष्टि करती है तो दूसरी ऐसा करने वालो के मुंह पर तमाचा जड़ती है। 
1. हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) द्वारा संयुक्त रूप से किए गए अध्ययन के अनुसार राजधानी की 26 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा की वजह से मानसिक रोगी हैं। जबकि 5 प्रतिशत महिलाओं की स्थिति इतनी गंभीर पाई गई कि उन्हें मानसिक रोग काउंसलर की ज़रूरत महसूस हुई।
2. वहीं दिल्ली में अभी-अभी सम्पन्न हुए कॉमनवेल्थ खेलों में पहली बार 13 स्वर्ण समेत 36 पदक महिलाओं ने जीते। जिसमें बैडमिंटन में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला शटलर सायना नेहवाल, एथलेटिक्स में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला कृष्णा पुनिया, तीरंदाज़ी में व्यक्तिगत स्पर्धा का स्वर्ण जीतने वाली पहली तीरंदाज़ दीपिका, डोला, बोम्बाल्या, वेटलिफ्टिंग में लगातार दो बार खेलों में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला वेटलिफ्टर रेनु बाला और महिला कुश्ती में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला पहलवान गीता देवी आदि हैं।

      इन दोनों ही ख़बरों पर ग़ौर करने पर दिमाग़ में कई सवाल उठते हैं। एक ओर महिलाएं प्रताड़ित हो रही हैं और मानसिक रोगी बन रहीं हैं वहीं दूसरी तरफ़ यही महिलाएं देश को खेलों में सोने की सौग़ात दे रहीं है और वो भी ऐसे माहौल में जहां लगभग हर लड़की मर्दों द्वारा ‘मानसिक बलात्कार’ की शिकार होती हैं और उन्हें हर जगह इन्फीरियर होने का अहसास कराने से कोई नहीं चूकता। सोचिए यदि इन्हें सही मायनों में बराबरी और सही अवसर प्रदान किए जाएं तो पदको की ये संख्या कितनी हो सकती है? पदक जीतने वाली ज़्यादातर लाडलियां ऐसे इलाको से हैं जहां महिलाओं की स्थिति माशाअल्लाह है। आपकी नज़र में ये पदक उन के लिए क़रारा जवाब नहीं हैं? चाहे फिर भिवानी की पहलवान बहनों का उदाहरण लें या फिर ऑटो चालक की बेटी दीपिका का। सभी ने अपने आपको एक खिलाड़ी के तौर पर साबित करने के साथ ही पूरे देश की लड़कियों को कुछ कर दिखाने का जज़्बा दिया है और लैंगिक भेदभाव करने वालों को उनकी औक़ात दिखाई है। इनके मां-बाप की मेहनत पर भी ग़ौर करने की ज़रूरत है जिन्होंने अपनी बेटियों पर विश्वास जताया और उनके दृढ़ निश्चय और हौंसलों में अपने सपने भी सजाये। इन्होंने उन सभी दब्बू सोच रखने वाले माता-पिताओं के समक्ष एक उदाहरण पेश किया है, एक नया रास्ता दिया है। इन सभी की जय-जयकार।
लेकिन ऐसा नहीं है कि यह देश में पहली बार है जब लड़कियों ने कुछ ख़ास किया है। देश में लगभग सभी क्षेत्रों में लड़कियां अपना लोहा मनवाती रहीं हैं। वर्तमान में सोनिया गांधी और राष्ट्रपत्नि प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जैसी मिसालें हमारे बीच ही हैं। लोगों के नज़रिये में पिछले कुछ सालों में काफ़ी हद तक बदलाव भी आया है। लेकिन एक व्यापक स्तर पर उड़ान अब भी बाकी है। सोचने वाली बात है कि औरतों को समान अवसर देने का दंभ भरने वाला हमारा हिन्दुस्तान लैंगिक भेदभाव पर 165 देशों के अध्ययन में 115 वें स्थान पर आता है। इसी तरह हर दिन एक नया सर्वे हमें हमारे समाज की असलियत से रूबरू कराता है। अपने गिरेबां में झांकने को मजबूर करता है। ऐसे में कॉमनवेल्थ खेलों में महिलाओं के इतने पदक जीतने के मायने अपनें आप में कुछ अलग हैं। एक ओर हैं लगातार मानसिक और शारीरिक हिंसा का शिकार होती महिलाएं जिन्हें दबाया जाता है। बीमारियों की ओर जाने-अन्जाने धकेल दिया जाता है। और दूसरी ओर हैं वो महिलाएं जिन्हें अवसर दिये गये और जिन्होंने बेहतरीन मानसिक व शारीरिक शक्ति का परिचय दिया है। ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड और कनाडा समेत कई देशों की महिलाओं को पछाड़कर हमारी इन्हीं भारतीय महिलाओं ने चिंघाड़कर बताया है कि वो भी किसी से कम नहीं बशर्ते उन्हें भी परिवार, समाज और देश में अहमियत और इज़्ज़त मिले। कॉमनवेल्थ खेल, जिनमें वे देश प्रतिस्पर्धा करते हैं जो पहले ब्रिटिश शासन के ग़ुलाम रहें हैं, में इन लड़कियों ने लिंग पर आधारित ग़ुलामी को तोड़ा है। इसमें उनके अत्याचारों, हिंसा, लालछन और बंधनों से मुक्त हो उनमुक्त गगन में उड़ने की लालसा और काबिलियत दिखाई पड़ती है। हम सभी के लिए ये दोनों उदाहरण काफ़ी कुछ स्पष्ट करते हैं।