Friday 17 December 2010

इमोशनल रियलिटी का अत्याचार..


पिछले कुछ सालों से हमारा बुद्धु-बक्सा अच्छा-ख़ासा चालू हुआ है। डेली सोप के युग से होते हुए ये ‘चालू-बक्सा’ कई प्रयोग करता रहा है। जिनमें रियलिटी शो ने ज़बरदस्त प्रशंसा बटोरी है। चन्द चैनलों को छोड़कर बाकि सभी मनोरंजन चैनल रियलिटी के रंग में रंगे हुए हैं। यहां तक कि न्यूज़ चैनलों पर भी रियलिटी शो की तूती बोलती है। ज़्यादातर न्यूज़ चैनल इनके एपिसोड बार-बार दिखाकर अपना समय काटते हैं। यही नहीं,हर दिन कोई नया रियलिटी शो जन्म लेता है। कहीं कोई अपने अंदाज़ में इंसाफ़ करता है तो कोई टीवी पर अपना स्वंयवर करता है। रिश्तों को सुलझाने के लिए शो बन रहे हैं। अगर आपको अपने पति या प्रेमी पर शक है तो टीवी पर उनका सच जानिए। यही नहीं अगर आप अपने मां-बाप या बच्चे से परेशान हैं तो कुछ दिन के लिए नऐ मां-बाप या बच्चे ले लीजिए। आपकी फैमिली क्या ज़िन्दगी बदल जाएगी। अंताक्षरी,गायन और नृत्य से शुरु होते हुए अब रियलिटी का कैमरा ज़ाती ज़िन्दगियों में प्रवेश करता जा रहा है। तेज़ी के साथ ड्रॉइंग रूम से होते हुए अब बेडरूम में भी घुसने लगा है।

 
यहां देखने लायक बात यह है कि रियलिटी के कवर में किस तरह की चीज़े हमें परोसी जा रही हैं। ये तो हम सभी जानते हैं कि आजकल रियलिटी शो सीधे-सीधे युवाओं को टारगेट कर रहे हैं। एम. टीवी से लेकर बिंदास तक सभी चैनल युवाओं का आकर्षण-केंद्र बनने की फ़िराक में हैं। इस दौड़ में एक नई होड़ शुरू हुई है। वो है गाली-गुफ़्तार, मारपीट, अश्लीलता और गंद को सजाकर पेश करने की प्रतियोगिता। बिग-बॉस,इमोशनल अत्याचार,एमटीवी रोडी और स्प्लिटविला जैसे शो इस कतार में बड़े ही गर्व के साथ सबसे अव्वल प्रतीत होते हैं। इन्होंने भारतीय टेलीविज़न में तहज़ीब और तमीज़ के बने बनाए ढांचे को बिना आवश्यकता गिराने का काम किया है। इन शो में किसी काबिल उम्मीदवार की तलाश नहीं होती जो पढ़ाई में अच्छा हो या बहुत प्रतिभाशाली हो या मेहनती और लायक हो। बल्कि उजड, बेशर्म, बिगड़ैल और अभद्र शख़्स इनकी खोज हैं। जो बिना मां-बहन किए बात न करें। बिना वजह लड़ सकें। कैमरे की परवाह किए बिना अफ़रा-तफ़री और बदमिज़ाजी फैलाने में माहिर हों। इस सबके बदले में उन्हें मुंह-मांगी शोहरत मिलनी तय है। क्योंकि लोग इस तरह के लोगों को टीवी में देखकर चकित ज़रूर होंगे। इन कार्यक्रमों की बुलंदी का सीधा सा फण्डा है। अलग-अलग तरह के लोगों में यदि ऐसे एक दो मेटीरियल भी डाल दिए जाएं तो शो की टीआरपी छप्पर फाड़ निकलती है।

 
अब अगर आप इसे ग़लत मानते हैं तो जान लीजिए कि इस सब की वजह आप ही हैं। दरअस्ल इनमें से कई लोगों का मानना है कि ये वो ही दिखा रहे हैं जो लोग देखना चाहते हैं। आप ही बताईए कि क्या वाकई आप ये सब देखने के शौकीन हैं ? चलिए हम मान लेते हैं कि कुछ लोग ऐसे हैं जो ये सब देखना चाहते हैं, तो क्या हर वो चीज़ दिखाना संभव है जो लोग देखना चाहते हैं ? शायद कल कुछ लोग रीयल ख़ून-ख़राबा औऱ सेक्स भी बिना किसी रुकावट के देखना चाहेंगे तो क्या केवल मांग के आधार पर ये सब दिखाना जायज़ बन जाता है। क्या हर वो चीज़ करना सही है जो लोग चाहते हैं ? इस हिसाब से तो सती प्रथा भी सही थी और ऑनर किलिंग भी सही है, सड़क पर शराब पीना भी कोई बुरी बात नहीं है,क्योंकि कुछ लोग ये सब भी चाहते हैं। क्या इन प्रोग्रामों के अन्य पहलुओं पर ग़ौर करने की आवश्यकता नहीं है ? क्यों हम ये भूलते जा रहे हैं कि इस चालू-बक्से का हमारी ज़िन्दगी में कुछ रोल भी है ? इसकी कुछ ज़िम्मेदारियां भी हैं ?  
सामाजिक समस्याओं पर काम करने से परहेज़ करने वालों का कहना है कि अब लोग साहित्य और समस्याओं को देखना पसन्द नहीं करते। फिर ‘बालिका वधु’ जैसा सामाजिक सरोकार रखने वाला सीरियल लगातार अव्वल कैसे रहता है। इसकी अच्छी टीआरपी ये संदेश नहीं देती कि लोग सकारात्मक और सुधारात्मक चीज़े देखना अब भी पसन्द करते हैं। बशर्ते आपमें इतनी प्रतिभा हो कि आप उसे सही ढंग से पेश कर सकें। कौन बनेगा करोड़पति जैसा शो बिना किसी अश्लीलता या गंदगी के अपने आप में इतिहास है..कैसे ? क्यों ऐसी नौबत क्यों आ गयी है कि एक मध्यवर्गीय परिवार का व्यक्ति टीवी देखते समय रिमोट हाथ में पकड़कर रखता है ताकि बीच में अचानक आ जाने वाली गाली-गलौज या अश्लीलता से परिवार वालों के सामने शर्मिंदा होने से बचा जा सके।

 सेंसरबोर्ड तो कुम्भकर्ण की नींद ले रहा है। विभिन्न पार्टियों और सम्बन्धित संस्थाओं के एजेण्डा में ये मुद्दे क्यों नहीं समाते ? मुम्बई को बॉम्बे कह देने मात्र पर जमकर हंगामा बरपाया जाता है पर हर दिन इतनी अराजकता दिखाने के बावजूद कोई चूं भी नहीं करता। हमारे चहेते एक्टर भी चुप्पी रखते हैं। शायद इन्डस्ट्री-वाद राष्ट्रवाद से ऊपर है।
आप और हम तो बिना सोचे-समझे इन्हें देखे जा रहे हैं। धड़ाधड़ एसएमएस कर रहे हैं। हमें क्यों नहीं दिखाई देता कि टीआरपी की इस जंग में आम दर्शक ही घायल हो रहा है। किस तरह इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले और देखने वालें दोनो ओर के लोगों की भावनाओं से खेला जाता है।
किस तरह हिंसा और सिर्फ़ हिंसा हमारे छोटे पर्दे पर छा रही है ? एक छोटे से एड से लेकर नाटकों और बच्चों के कार्टून तक नकारात्मक शैली अपनाते जा रहे हैं। बिना कुछ जाने-बूझे बच्चे ये सब देखे जा रहे हैं और जो दिख रहा है उसे ही सही माने जा रहे हैं। एक छोटा बच्चा अपने साथ के बच्चे को चाकू से गोद डालता है, क्या ये टीवी पर दिखाई जाने वाली हिंसा का असर मानना ग़लत है ? रियलिटी शो पर बेइज़्ज़त होकर एक व्यक्ति ख़ुदकुशी कर लेता है। ऐसे ही न जाने कितने वाकयो से अख़बार भरे पड़े हैं। क्या वाकई अब हम नहीं चाहते कि हम और हमारे बच्चे कुछ अच्छा और देखने लायक कुछ देखें। ताकि कुछ बनें न बनें कम से कम एक अच्छा इन्सान बन सकें। इसका जवाब आपको ही देना है अगली बार टीवी खोलते समय सही चीज़ देखने का चुनाव करके।

5 comments:

  1. इमोशनल रियलिटी का अत्याचार..मजा आ गया ।

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  2. "मेर्री क्रिसमस" की बहुत बहुत शुभकामनाये

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  3. आप सभी को भी बहुत बहुत मुबारक।।
    हालांकि मुबारकबाद काफी लेट हो गयी।।

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  4. आपका होली के अवसर पर विशेष ध्यानाकर्षण हेतु.....
    देश को नेता लोग करते हैं प्यार बहुत?
    अथवा वे वाक़ई, हैं रंगे सियार बहुत?
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    हार्दिक मंगलकामनाएं। सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

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