Monday 18 October 2010

झोली में हैं पदक और आंखों में पानी...

सैय्यद शहाब अली


बिलकुल अभी-अभी दो ख़बरों पर नज़र गई। दोनों ही औरतों से ताल्लुक रखती हैं। एक को पढ़कर आंखे नम हुईं और ग़ुस्से का अहसास हुआ तो तभी दूसरी को पढ़कर दिल को ठण्डक मिली और बहुत फ़क्र हुआ। पहली औरतों पर होने वाले अत्याचारों की पुष्टि करती है तो दूसरी ऐसा करने वालो के मुंह पर तमाचा जड़ती है। 
1. हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) द्वारा संयुक्त रूप से किए गए अध्ययन के अनुसार राजधानी की 26 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा की वजह से मानसिक रोगी हैं। जबकि 5 प्रतिशत महिलाओं की स्थिति इतनी गंभीर पाई गई कि उन्हें मानसिक रोग काउंसलर की ज़रूरत महसूस हुई।
2. वहीं दिल्ली में अभी-अभी सम्पन्न हुए कॉमनवेल्थ खेलों में पहली बार 13 स्वर्ण समेत 36 पदक महिलाओं ने जीते। जिसमें बैडमिंटन में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला शटलर सायना नेहवाल, एथलेटिक्स में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला कृष्णा पुनिया, तीरंदाज़ी में व्यक्तिगत स्पर्धा का स्वर्ण जीतने वाली पहली तीरंदाज़ दीपिका, डोला, बोम्बाल्या, वेटलिफ्टिंग में लगातार दो बार खेलों में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला वेटलिफ्टर रेनु बाला और महिला कुश्ती में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला पहलवान गीता देवी आदि हैं।

      इन दोनों ही ख़बरों पर ग़ौर करने पर दिमाग़ में कई सवाल उठते हैं। एक ओर महिलाएं प्रताड़ित हो रही हैं और मानसिक रोगी बन रहीं हैं वहीं दूसरी तरफ़ यही महिलाएं देश को खेलों में सोने की सौग़ात दे रहीं है और वो भी ऐसे माहौल में जहां लगभग हर लड़की मर्दों द्वारा ‘मानसिक बलात्कार’ की शिकार होती हैं और उन्हें हर जगह इन्फीरियर होने का अहसास कराने से कोई नहीं चूकता। सोचिए यदि इन्हें सही मायनों में बराबरी और सही अवसर प्रदान किए जाएं तो पदको की ये संख्या कितनी हो सकती है? पदक जीतने वाली ज़्यादातर लाडलियां ऐसे इलाको से हैं जहां महिलाओं की स्थिति माशाअल्लाह है। आपकी नज़र में ये पदक उन के लिए क़रारा जवाब नहीं हैं? चाहे फिर भिवानी की पहलवान बहनों का उदाहरण लें या फिर ऑटो चालक की बेटी दीपिका का। सभी ने अपने आपको एक खिलाड़ी के तौर पर साबित करने के साथ ही पूरे देश की लड़कियों को कुछ कर दिखाने का जज़्बा दिया है और लैंगिक भेदभाव करने वालों को उनकी औक़ात दिखाई है। इनके मां-बाप की मेहनत पर भी ग़ौर करने की ज़रूरत है जिन्होंने अपनी बेटियों पर विश्वास जताया और उनके दृढ़ निश्चय और हौंसलों में अपने सपने भी सजाये। इन्होंने उन सभी दब्बू सोच रखने वाले माता-पिताओं के समक्ष एक उदाहरण पेश किया है, एक नया रास्ता दिया है। इन सभी की जय-जयकार।
लेकिन ऐसा नहीं है कि यह देश में पहली बार है जब लड़कियों ने कुछ ख़ास किया है। देश में लगभग सभी क्षेत्रों में लड़कियां अपना लोहा मनवाती रहीं हैं। वर्तमान में सोनिया गांधी और राष्ट्रपत्नि प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जैसी मिसालें हमारे बीच ही हैं। लोगों के नज़रिये में पिछले कुछ सालों में काफ़ी हद तक बदलाव भी आया है। लेकिन एक व्यापक स्तर पर उड़ान अब भी बाकी है। सोचने वाली बात है कि औरतों को समान अवसर देने का दंभ भरने वाला हमारा हिन्दुस्तान लैंगिक भेदभाव पर 165 देशों के अध्ययन में 115 वें स्थान पर आता है। इसी तरह हर दिन एक नया सर्वे हमें हमारे समाज की असलियत से रूबरू कराता है। अपने गिरेबां में झांकने को मजबूर करता है। ऐसे में कॉमनवेल्थ खेलों में महिलाओं के इतने पदक जीतने के मायने अपनें आप में कुछ अलग हैं। एक ओर हैं लगातार मानसिक और शारीरिक हिंसा का शिकार होती महिलाएं जिन्हें दबाया जाता है। बीमारियों की ओर जाने-अन्जाने धकेल दिया जाता है। और दूसरी ओर हैं वो महिलाएं जिन्हें अवसर दिये गये और जिन्होंने बेहतरीन मानसिक व शारीरिक शक्ति का परिचय दिया है। ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड और कनाडा समेत कई देशों की महिलाओं को पछाड़कर हमारी इन्हीं भारतीय महिलाओं ने चिंघाड़कर बताया है कि वो भी किसी से कम नहीं बशर्ते उन्हें भी परिवार, समाज और देश में अहमियत और इज़्ज़त मिले। कॉमनवेल्थ खेल, जिनमें वे देश प्रतिस्पर्धा करते हैं जो पहले ब्रिटिश शासन के ग़ुलाम रहें हैं, में इन लड़कियों ने लिंग पर आधारित ग़ुलामी को तोड़ा है। इसमें उनके अत्याचारों, हिंसा, लालछन और बंधनों से मुक्त हो उनमुक्त गगन में उड़ने की लालसा और काबिलियत दिखाई पड़ती है। हम सभी के लिए ये दोनों उदाहरण काफ़ी कुछ स्पष्ट करते हैं।

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